Hindi, asked by MinaMahale, 1 year ago

फटी किताब की आत्मकथा निबंध

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Answered by destroyerG
545
Hey dear friend ,

Here is your answer - - ++ --

【【【【फटी किताब की आत्मकथा निबंध】】】】

◆◆मैं पुस्तक हूँ । ◆◆
जिस रूप में आपको आज दिखाई देती हूं प्राचीन काल में मेरा यह स्वरूप नही था । गुरु शिष्य को मौखिक ज्ञान देते थे । उस समय तक कागज का आविष्कार ही नहीं हुआ था । शिष्य सुनकर ज्ञान ग्रहण करते थे ।
मुझे कागज का रूप देने के लिए घास-फूस, बांस के टुकड़े, पुराने कपड़े के चीथड़े को कूट पीस कर गलाया जाता है उसकी लुगदी तैयार करके मुझे मशीनों ने नीचे दबाया जाता है, तब मैं कागज के रूप में आपके सामने आती हूँ ।
मेरा स्वरूप तैयार हो जाने पर मुझे लेखक के पास लिखने के लिए भेजा जाता है । वहाँ मैं प्रकाशक के पास और फिर प्रेस में जाती हूँ । प्रेस में मुश् छापेखाने की मशीनों में भेजा जाता है । छापेखाने से निकलकर में जिल्द बनाने वाले के हाथों में जाती हूँ ।

●●●एक दिन एक विद्यार्थी ने मुझे खरीद लिया और अपने घर ले आया।उसने बड़े प्यार से मेरे कवर पर अपना नाम लिखा और मेरे पन्नों पर लिखने लगा। अगले दिन वह मुझे अपने बस्ते में रखकर स्कूल ले गया। उसने अपने सब साथियों को मुझे दिखाया। उन लोगों ने मेरी बहुत तारीफ करी।

वह मुझे पाकर बहुत खुश था। वह प्रतिदिन मेरे पन्नों पर लिखकर पढ़ता था और मुझे अपने साथ रखता था। इस प्रकार कई साल बीत गए। वह बड़ा हो गया और मैं पुरानी हो गयी। धीरे धीरे मेरे पन्ने पीले और कमज़ोर हो गए। मेरे कागजों के किनारे फटने लगे और कई पन्ने निकल गए।

इसलिए उसने मुझे अलमारी में एक जगह रख दिया। अब मैं फट गयी हूँ और यहीं रहती हूँ। वह कभी कभी मुझे देखने आता है और मुझे देखकर बहुत खुश होता है।●●●


Thanks for question ;)☺☺☺


Answered by sweetandsimple64
161
hey here is your answer

दोस्तों आज हम आपको एक फटी पुस्तक की आत्मकथा सुना रहे है कि एक पुस्तक किस प्रकार अपने जीवन की व्याख्या करती है,  वह किस प्रकार अपने जीवन को जीती है। यह एक पुस्तक पर निबंध भी है। एक Pustak अपने जीवन की दास्तान बताते हुए कहती है कि मै एक पुस्तक हूँ, मेरा स्वरूप पहले ऐसा नहीं था जैसा आज आप देखते हो, यह बात तब की जब ऋषि मुनि इस पावन धरती पर रहते थे। वे अपने शिष्यों की परीक्षा मौखिक रूप से लेते थे।

लेकिन एक दिन ऋषि मुनियों को विचार आया कि अगर हम कल इस धरती पर नहीं रहे तो हमारा ज्ञान तो व्यर्थ चला जाएगा। तब ऋषि मुनियों ने अपने ज्ञान के प्रकाश को फैलाने के लिए केले के पत्तों पर लिखना प्रारम्भ किया। पुस्तक कहती है यही मेरा पहला स्वरूप था, यही से मेरे जीवन की शुरुवात हुई, यही वो दिन था मेरा सौभाग्य था की मेरे उपर ऋषि मुनियों का अमृत रूपी ज्ञान की वर्षा हुई, और यह ज्ञान आज भी कई युगों के बाद भी मै सब लोगो में बाँट रही हूं।

और पुस्तक कहती है की उसका जीवन उस दिन धन्य हो गया जब महर्षि वेदव्यास महाभारत नाम के महाकाव्य की रचना की और श्री गणेश भगवान ने उस महान वेद को मेरे ऊपर लिखा। उसी दिन से मैं पूजी जाने लगी, मुझे अलग-अलग धर्मो हिन्दू, सिख, ईसाई, जैन, क्रिश्चिन, मुस्लिम आदि में मुझे ईश्वर के समान सम्मान दिया जाता है। सभी लोग मुझे आदर और सम्मान देते है।

एक पुस्तक अपने जीवन की व्याख्या करते हुए कहती है कि जिस रूप में आज आप मुझे देखते है पहले मै ऐसी दिखाई नही देती थी। यह रूप तो उसे कई कठिनाइयों और पीड़ा झेलने के बाद मिला है। वह कहती है की उसका पहला रूप पेड़ो की पत्तियाँ थी। जब बड़े बड़े महाज्ञानी ऋषि मुनि उस पर लिखा करते थे।

लेकिन समय बदला और सबकुछ बदलने लगा और परिवर्तन तो संसार का नियम है इसलिए धीरे – धीरे मुझे बड़ी – बड़ी शिलाओं का रूप दे दिया गया वहां पर लिखा जाने लगा। लेकिन जब लोगो को आभास हुआ की  शीला (पत्थर) पर लिखा ज्ञान सभी जगह नहीं फैलाया जा सकता तो लोगो ने मुझे नया कपड़े का रूप दिया। यह रूप मेरा सभी राजा- महाराजाओं को भाया।

कपड़े पर लिखा ज्ञान चारों दिशाओं में फैलने लगा, राजा – महाराजा अपना संदेश मेरे माध्यम से एक दुसरे को पहुँचाने लगे। चारों दिशाओं और मेरी ख्याति फैलने लगी।

लेकिन फिर एक नया दौर आया और फिर मेरा रूप बदला इस बार मेरा रूप बहुत ही सुंदर था। मुझे कागज का रूप दिया गया, जिसके बाद मैं अमर हो गयी। मुझे कागज का रूप देने के लिए घास-फूस, बांस के टुकड़े, पुराने कपड़े के चीथड़े को कूट कर पानी में गलाया जाता है। फिर मुझे बड़ी-बड़ी मशीनों में निचोड़ दिया जाता है।

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