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Answers
प्रश्नः 1.
‘नींद क्यूँ रात भर नहीं आती’
उत्तरः
आजकल महानगरों में अनिद्रा यानि की नींद न आने की शिकायत रोज़ बढ़ती जा रही है। अक्सर आपको आपके परिचित मित्र शिकायत करते मिल जायेंगे कि उन्हें ठीक से नींद नहीं आती। रात भर वे या तो करवटें बदलते रहते हैं या घड़ी की ओर ताकते रहते हैं। कुछेक तो अच्छी नींद की चाह में नींद की गोली का सहारा भी लेते हैं।
नींद न आना, बीमारी कम, आदत ज़्यादा लगती है। वर्तमान युग में मनुष्य ने अपने लिए आराम की ऐसी अनेक सुविधाओं का विकास कर लिया है कि अब ये सुविधाएँ ही उसका आराम हराम करने में लगी हुई हैं। सूरज को उगते देखना तो शायद अब हमारी किस्मत में ही नहीं है। ‘जल्दी सोना’ और ‘जल्दी उठना’ का सिद्धांत अब बीते दिनों की बात हो चला है या यूँ कहिए कि समय के साथ वह भी ‘आऊटडेटेड’ हो गई है। देर रात तक जागना और सुबह देर से उठना अब दिनचर्या कम फ़ैशन ज्यादा हो गया है। लोग ये कहते हुए गर्व का अनुभव करते हैं कि रात को देर से सोया था जल्दी उठ नहीं पाया। जो बात संकोच से कही जानी चाहिए थी अब गर्व का प्रतीक हो गयी है। एक ज़माना था जब माता-पिता अपने बच्चों को सुबह जल्दी उठने के संस्कार दिया करते थे। सुबह जल्दी उठकर घूमना, व्यायाम करना, दूध लाना आदि ऐसे कर्म थे जो व्यक्ति को सुबह जल्दी उठने की प्रेरणा देते ही थे साथ ही उससे मेहनतकश बनने की प्रेरणा भी मिलती थी। मगर धीरे-धीरे आधुनिक सुख-सुविधाओं ने व्यक्ति को काहित बना दिया और इस काहिली में उसे अपनी सार्थकता अनुभव होने लगी है।
आराम की इस मनोवृत्ति ने मनुष्य को मेहनत से बेज़ार कर दिया है जिसका परिणाम यह हुआ है कि मनुष्य की रोग-प्रतिरोधक क्षमता धीरे-धीरे कम होने लगी है और वह छोटी-छोटी बीमारियों के लिए भी दवाईयाँ खाने की कोशिश करता है जबकि इन बीमारियों का ईलाज केवल दिनचर्या-परिवर्तन से ही हो सकता है। नींद न आना ऐसी ही एक बीमारी है जो आधुनिक जीवन की एक समस्या है। हमारी आराम तलबी ने हमें इतना बेकार कर दिया है कि हम सोने में भी कष्ट का अनुभव करते हैं। रात भर करवटें बदलते हैं और दिन-भर ऊँघते रहते हैं। नींद न आने के लिए मुख्य रूप से हमारी मेहनत न करने की मनोवृत्ति जिम्मेदार है।
हम पचास गज की दूरी भी मोटर कार या स्कूटर से तय करने की इच्छा रखते हैं। सुबह घूमना हमें पसंद नहीं है, सीधे बैठकर लिखना या पढ़ना हमारे लिए कष्ट साध्य है। केवल एक मंजिल चढ़ने के लिए हमें लिफ्ट का सहारा लेना पड़ता है। ये हमारी आरामतलबी की इंतहा है। इसी आराम ने हमें सुखद नींद से कोसों दूर कर दिया है। नींद एक सपना होती जा रही है। अच्छी नींद लेने के लिए हमें विशेषज्ञों की राय की आवश्यकता पड़ने लगी है जबकि इसका आसान-सा नुस्खा हमारी दादी और नानी ने ही बता दिया था कि खूब मेहनत करो, जमकर खाओ और चादर तानकर सो जाओ।
हज़ारों लाखों रुपये जोड़कर भी नींद नहीं खरीदी जा सकती। नींद तो मुफ्त मिलती है –कठोर श्रम से। शरीर जितना थकेगा, जितना काम करेगा, उतना ही अधिक आराम उसे मिलेगा। कुछ को नरम बिस्तरों और एयर कंडीश्नर कमरों में नींद नहीं आती और कुछ चिलचिलाती धूप में भी नुकीले पत्थरों पर घोड़े बेचकर सो जाते हैं। इसीलिए अच्छी नींद का एक ही नुस्खा है वो है-मेहनत-मेहनत-मेहनत। दिन-भर जी-तोड़ मेहनत करने वाले इसी नुस्खे को आजमाते हैं। नींद पाने के लिए हमें भी उन जैसा ही होना होगा। किसी शायर ने क्या खूब कहा है –
सो जाते हैं फुटपाथ पे अखबार बिछाकर,
मज़दूर कभी नींद की गोली नहीं खाते।
(लेखक : हरीश अरोड़ा)
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