Social Sciences, asked by BrainlyUser12895, 2 months ago

गंडीवधी दृष्टिकोण काय आहे ?

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Answered by sudeshsharma719370
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Explanation:

please tell me in English

Answered by vaishalijadhav0421
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आज आधुनिकता की अंधाधुंध दौड़ में दौड़ रहे विश्व के सभी देशों की गति पर कोरोना वायरस ने ब्रेक लगा दिया है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि कोरोना वायरस का तेज़ी से प्रसार इसी दौड़ का परिणाम है। कोरोना वायरस के प्रसार को रोकने के लिये लॉकडाउन की व्यवस्था अपनाई गई है। इस व्यवस्था को प्रभावी बनाने के लिये गांधीवादी दृष्टिकोण पर आधारित स्वदेशी, स्वच्छता और सर्वोदय की अवधारणा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। सामान्यतः महात्मा गांधी को औपनिवेशिक सत्ता के विरुद्ध के विरुद्ध संघर्ष करने वाले योद्धा के रूप में देखा जाता है, किंतु यदि गहराई से देखें तो गांधी ने न केवल स्वतंत्रता की लड़ाई बल्कि उन्होंने हर समय भारतीय सभ्यता को श्रेष्ठता दिलाने का प्रयास भी किया और विश्व व्यवस्था के समक्ष भारतीय सभ्यता का प्रतिनिधित्व किया।

पश्चिमी सभ्यता के वर्चस्व वाले उस युग में गांधी ने भारतीय सभ्यता को श्रेष्ठ बताते हुए उसे संपूर्ण विश्व के लिये एक विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया। रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने गांधी के बारे में उचित ही लिखा है-

“एक देश में बांध संकुचित करो न इसको

गांधी का कर्तव्य क्षेत्र, दिक् नहीं, काल है

गांधी है कल्पना जगत के अगले युग की

गांधी मानवता का अगला उद्विकास है”

इस आलेख में गांधीवादी दृष्टिकोण की व्यापकता को समझते हुए, वैश्विक महामारी COVID-19 के प्रसार को रोकने में सहायक स्वदेशी, स्वच्छता और सर्वोदय की अवधारणा का मूल्यांकन करने का प्रयास किया जाएगा।

गांधीवादी दृष्टिकोण क्या है?

गांधीवादी दृष्टिकोण महात्मा गांधी द्वारा अपनाई और विकसित की गई उन धार्मिक-सामाजिक विचारों का समूह जो उन्होंने पहली बार वर्ष 1893 से 1914 तक दक्षिण अफ्रीका में तथा उसके बाद फिर भारत में अपनाए गए थे।

गांधीवादी दर्शन न केवल राजनीतिक, नैतिक और धार्मिक है, बल्कि पारंपरिक और आधुनिक तथा सरल एवं जटिल भी है। यह कई पश्चिमी प्रभावों का प्रतीक है, जिनको गांधीजी ने उजागर किया था, लेकिन यह प्राचीन भारतीय संस्कृति में निहित है तथा सार्वभौमिक नैतिक और धार्मिक सिद्धांतों का पालन करता है।

गांधीवादी दृष्टिकोण आदर्शवाद पर नहीं, बल्कि व्यावहारिक आदर्शवाद पर ज़ोर देती है।

गांधीजी का दृष्टिकोण विभिन्न प्रेरणादायक स्रोतों व नायकों जैसे- भगवद्गीता, जैन धर्म, बौद्ध धर्म, बाइबिल, गोपाल कृष्ण गोखले, टॉलस्टॉय, जॉन रस्किन आदि से प्रभावित था।

गांधीजी पहले ऐसे भारतीय थे जिन्होंने वर्ष 1909 में अपनी पुस्तक ‘हिंद स्वराज’ में मशीनीकरण के भयावह रूप को रेखांकित करते हुए ‘स्वदेशी’ की महत्ता को बताया।

गांधीजी ने रस्किन की पुस्तक 'अंटू दिस लास्ट' से 'सर्वोदय' के सिद्धांत को ग्रहण किया और उसे जीवन में उतारा।

गांधीजी के लिये ‘स्वच्छता’ एक बहुत ही महत्वपूर्ण सामाजिक मुद्दा था। वर्ष 1895 में जब ब्रिटिश सरकार ने दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों और एशियाई व्यापारियों से उनके स्थानों को गंदा रखने के आधार पर भेदभाव किया था, तब से लेकर जीवनभर गांधीजी लगातार स्वच्छता पर जोर देते रहे।

स्वदेशी से तात्पर्य

स्वदेशी शब्द संस्कृत से लिया गया है और यह संस्कृत के दो शब्दों का एक संयोजन है। 'स्व' का अर्थ है स्वयं और 'देश' का अर्थ है देश। स्वदेशी का अर्थ अपने देश से है, लेकिन व्यवहारिक संदर्भों में इसका अर्थ आत्मनिर्भरता के रूप में लिया जा सकता है।

गांधी जी का मानना था कि इससे स्वतंत्रता (स्वराज) को बढ़ावा मिलेगा, क्योंकि भारत का ब्रिटिश नियंत्रण उनके स्वदेशी उद्योगों के नियंत्रण में निहित था। स्वदेशी भारत की स्वतंत्रता की कुंजी थी और महात्मा गांधी के रचनात्मक कार्यक्रमों में चरखे द्वारा इसका प्रतिनिधित्व किया गया था।

गांधी का स्वदेशी दर्शन

आधुनिक हिंदी साहित्य के जनक माने जाने वाले भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपने लेखन से स्वदेशी की अलख जगाई।

वर्ष 1905 का बंग-भंग विरोधी आंदोलन भी स्वदेशी की भावना से ओत-प्रोत था जब बंगाल में विदेशी वस्तुओं की होली जलाई गई और उनके बहिष्कार पर बल दिया गया।

इस स्वदेशी भाव को राष्ट्रीय स्तर पर बहुआयामी स्वरूप प्रदान करने का कार्य वर्ष 1920 में महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन प्रारंभ करके किया।

उन्होंने इसे न केवल विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार तथा उनके अग्निदाह तक सीमित रखा, बल्कि उद्योग-शिल्प, भाषा, शिक्षा, वेश-भूषा आदि को स्वदेशी के रंग में रंग दिया।

परंतु स्वतंत्रता के बाद गांधी जी की मृत्यु के साथ ही उनके स्वदेशी की अवधारणा भी लुप्त होने लगी और आधुनिक भारत के मंदिरों के नाम पर ‘स्वदेशी धरती’ पर विदेशी मशीनों को लाकर बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियां स्थापित की जाने लगीं।

नतीजतन, देश के तमाम हस्त उद्योग, कुटीर उद्योग लुप्त होते चले गए, घर-घर से चरखा गायब होता चला और शहरों से लेकर गाँवों तक देशी-विदेशी फैक्ट्रियों के उत्पादित माल बाज़ार में छा गए।

हस्त उद्योग, कुटीर उद्योग के लुप्त होने से भारत ने अपने विनिर्माण क्षेत्र को खो दिया।

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