गुजरात की लोक कला 100 to 150 words
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गुजरात की वास्तुकला शैली अपनी पूर्णता और अलंकारिकता के लिए विख्यात है, जो सोमनाथ, द्वारका, मोधेरा, थान, घुमली, गिरनार जैसे मंदिरों और स्मारकों में संरक्षित है। मुस्लिम शासन के दौरान एक अलग ही तरीक़े की भारतीय-इस्लामी शैली विकसित हुई। गुजरात अपनी कला व शिल्प की वस्तुओं के लिए भी प्रसिद्ध है। इनमें जामनगर की बांधनी (बंधाई और रंगाई की तकनीक), पाटन का उत्कृष्ट रेशमी वस्त्र पटोला, इदर के खिलौने, पालनपुर का इत्र कोनोदर का हस्तशिल्प का काम और अहमदाबाद व सूरत के लघु मंदिरों का काष्ठशिल्प तथा पौराणिक मूर्तियाँ शामिल हैं। राज्य के सर्वाधिक स्थायी और प्रभावशाली सांस्कृतिक संस्थानों में महाजन के रूप में प्रसिद्ध व्यापार और कला शिल्प संघ है। अक्सर जाति विशेष में अंतर्गठित और स्वायत्त इन संघों ने अतीत कई विवादों को सुलझाया है और लोकहित के माध्यम की भूमिका निभाते हुए कला व संस्कृति को प्रोत्साहन दिया है।
गुजरात राज्य में की जाने वाली वास्तु शिल्पीय नक़्क़ाशी कम से कम 15वीं शताब्दी से गुजरात भारत में लकड़ी की नक़्क़ाशी का मुख्य केंद्र रहा है। निर्माण सामग्री के रूप में जिस समय पत्थर का इस्तेमाल अधिक सुविधाजनक और विश्वसनीय था, इस समय भी गुजरात के लोगों ने मंदिरों के मंडप तथा आवासीय भवनों के अग्रभागों, द्वारों, स्तंभों, झरोखों, दीवारगीरों और जालीदार खिड़कियों के निर्माण में निर्माण में बेझिझक लकड़ी का प्रयोग जारी रखा। मुग़ल काल (1556-1707) के दौरान गुजरात की लकड़ी नक़्क़ाशी में देशी एवं मुग़ल शैलियों का सुंदर संयोजन दिखाई देता है। 16वीं सदी के उत्तरार्ध एवं 17वीं सदी के जैन काष्ठ मंडपों पर जैन पौराणिक कथाएँ एवं समकालीन जीवन के दृश्य तथा काल्पनिक बेल-बूटे, पशु-पक्षी एवं ज्यामितीय आकृतियाँ उत्कीर्ण की गई हैं; आकृति मूर्तिकला अत्यंत जीवंत एवं लयात्मक है। लकड़ी पर गाढ़े लाल रौग़न का प्रयोग आम था। 19वीं सदी के कई भव्य काष्ठ पुरोभाग संरक्षित हैं, लेकिन उनका अलंकरण पहले की निर्मितियों जैसा ललित और गत्यात्मक नहीं है।
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