गुजराती साहित्य और उसका महत्व 300words ka निबंध
Answers
Answer:
गुजराती भाषा आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में से एक है और इसका विकास शौरसेनी प्राकृत के परवर्ती रूप 'नागर अपभ्रंश' से हुआ है। गुजराती भाषा का क्षेत्र गुजरात, सौराष्ट्र और कच्छ के अतिरिक्त महाराष्ट्र का सीमावर्ती प्रदेश तथा राजस्थान का दक्षिण पश्चिमी भाग भी है। सौराष्ट्री तथा कच्छी इसकी अन्य प्रमुख बोलियाँ हैं। हेमचंद्र सूरि ने अपने ग्रंथों में जिस अपभ्रंश का संकेत किया है, उसका परवर्ती रूप 'गुर्जर अपभ्रंश' के नाम से प्रसिद्ध है और इसमें अनेक साहित्यिक कृतियाँ मिलती हैं। इस अपभ्रंश का क्षेत्र मूलत: गुजरात और पश्चिमी राजस्थान था और इस दृष्टि से पश्चिमी राजस्थानी अथवा मारवाड़ी, गुजराती भाषा से घनिष्ठतया संबद्ध है।
गुजराती साहित्य में दो युग माने जाते हैं-
मध्यकालीन युग
अर्वाचीन युग
मध्यकालीन साहित्य संपादित करें
गुर्जर या श्वेतांवर अपभ्रंश की कृतियों को गुजराती की आद्य कृतियाँ माना जा सकता है। ये प्राय: जैन कवियों की लोकसाहित्यिक शैली में निबद्ध रचनाएँ हैं। रास, फाग तथा चर्चरी काव्यों का प्रभूत साहित्य हमें उपलब्ध है, जिनमें प्रमुख भरतबाहुबलिरास, रेवंतदास, थूलिभद्दफाग, नेमिनाथचौपाई आदि हैं। इसके बाद भी 13वीं 14वीं सदी की कुछ गद्य रचनाएँ मिलतीं हैं, जो एक साथ जूनी गुजराती और जूनी राजस्थानी की संक्रांतिकालीन स्थिति का परिचय देती हैं। वस्तुत: 16वीं सदी तक, मीराबाई तक, गुजराती और पश्चिमी राजस्थानी एक अविभक्त भाषा थी। इनका विपाटन इसी सदी के आसपास शुरू हुआ था।
प्राचीन गुजराती साहित्य का इतिहास विशेष समृद्ध नहीं है। आरंभिक कृतियों में श्रीधर कवि का ‘रणमल्लछंद’ (1390 ई. ल.) है, जिसमें ईडर के राजा रणमल्ल और गुजरात के मुसलमान शासक के युद्ध का वर्णन है। दूसरी कृति पद्मनाभ कवि का कान्हड़देप्रबन्ध (1456 ई.) है, जिसमें जालौर के राजा कान्हड़दे पर अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण और युद्ध का वर्णन है। यह काव्य वीररस की सुन्दर रचना है और गुजराती साहित्य के आकर ग्रंथों में परिगणित होता है। इन्हीं दिनों मध्ययुगीन सांस्कृतिक जागरण की लहर गुजरात में भी दौड़ पड़ी थी, जिसके दो प्रमुख प्रतिनिधि नरसी मेहता और भालण कवि हैं। नरसी का समय विवाद्ग्रस्त है, पर अधिकांश विद्वानों के अनुसार ये 15वीं सदी के उत्तराद्ध में विद्यमान थे। इनकी कृष्णभक्ति के विषय में अनेक किंवदंतिया प्रचलित हैं। नरसी मेहता गुजराती पदसाहित्य के जन्मदाता हैं जिसमें निश्चल भक्तिभावना की अनुपम अभिव्यक्ति पाई जाती है। भालण कवि का समय भी लगभग यही माना जाता है। इन्होंने रामायण, महाभारत और भागवत के पौराणिक इतिवृत्तों को लेकर अनेक काव्य निबद्ध किए और गरबासाहित्य को जन्म दिया। वात्सल्य और श्रृंगार के चित्रण में भालण सिद्धहस्त माने जाते हैं। पद साहित्य और आख्यान काव्यों की इन दोनों शैलियों ने मध्ययुगीन गुजराती साहित्य को कई कवि प्रदान किए हैं। प्रथम शैली का अन्य महत्वपूर्ण व्यक्तित्व मीराबाई (16वीं सदी) हैं जिनपर नरसी का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। हिंदी और राजस्थानी की तरह मीराबाई के अनेक सरस पद गुजराती में पाए जाते हैं जो नरसी के पदों की भाँति ही गुजराती जनता में लोकगीतों की तरह गाए जाते हैं। आख्यान काव्यों की शैली का निर्वाह नागर, केशवदास, मधुसूदन व्यास, गणपति आदि कई कवियों में मिलता है, किंतु इसका चरमपरिपाक प्रेमानंद में दिखाई पड़ता है।