Political Science, asked by maneeshmadhavjh7988, 1 year ago

गोखले की स्वशासन की धारणा समझाइए।

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Answered by sube627
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गोपाल कृष्ण गोखले पर गोविंद रानाडे का प्रभाव था. उन्होंने एक बार कहा था - ‘मैं रानाडे साहब के साथ मिलकर गलत काम करके भी संतुष्ट हूं, पर उनसे अलग होकर मैं कोई काम नहीं करूंगा. महात्मा गांधी अपनी किताब ‘स्वराज’ में लिखते हैं - ‘गोखले हर बात में रानाडे का ज़िक्र ले आते हैं. ‘रानाडे ये कहते थे’ गोखले का उवाच था. रानाडे गोपाल कृष्ण गोखले के गुरु थे और गांधी गोखले को अपना गुरू मानते थे.

22 वर्ष की उम्र में बंबई विधान परिषद का सदस्य बनने के साथ ही गोपाल कृष्ण गोखले का राजनैतिक जीवन शुरू हो गया था. 1889 में वे कांग्रेस के सदस्य बन गए. सरकार की भू-राजस्व संबंधी नीति पर उन्होंने असरदार भाषण दिए. गोपाल कृष्ण गोखले एक ऐसे राजनैतिक विचारक थे जिन्होंने तत्कालीन भारतीय राजनीति और प्रशासन में क्रमिक सुधारों का पक्ष लिया था और यकायक स्वशासन की मांग को अव्यावहारिक माना था. पूना कांग्रेस अधिवेशन में उनका कहना था - ‘अच्छे या बुरे हेतु हमारा भविष्य और हमारी आंकाक्षाएं ब्रिटेन के साथ जुड़ गयी हैं. और कांग्रेस उन्मुक्त रूप से स्वीकार करती है कि हम जिस प्रगति की इच्छा रखते हैं वह ब्रिटिश शासन की सीमाओं में ही है.’

ब्रिटिश सरकार के अनन्य भक्त

गोपाल कृष्ण गोखले व्यवहारिक राजनैतिक बुद्धि के धनी थे, जो ब्रिटिश साम्राज्यवादी शासकों की न्याय और उदारता की भावना को उकसा कर हिंदुस्तान को उनके साम्राज्य के भीतर ही स्वायत्तता दिलाने के पक्षधर थे. लेकिन ये बात तिलक और गरम दल के सदस्यों के गले नहीं उतरती थी. गोखले का विचार था कि उग्रवादी साधनों से भारत का अहित होगा. एक बार लार्ड हार्डिंग ने उनसे पूछ लिया - ‘तुम्हें कैसा लगेगा अगर मैं तुम्हें ये कह दूं कि एक महीने में ही ब्रिटिश ये देश छोड़ देंगे?’ उनका जवाब था, ‘मुझे बेहद ख़ुशी होगी लेकिन इससे पहले कि आप लोग लंदन पंहुचें हम आपको वापस आने के लिए तार (टेलीग्राम) कर देंगे.’

तिलक ‘स्वराज्य‘ पर ज़ोर देते थे लेकिन वे अंग्रेजों का इस बात के लिए भी आभार मानते थे कि उन्होंने आकर देश में शांति व्यवस्था लागू की. वे कहते थे - ‘भारत में किसी भी समय अव्यवस्था पैदा करना कोई कठिन काम नहीं है. यह तो शताब्दियों तक रहा है. परन्तु इस एक शताब्दी के समय में अंग्रेजों ने यहां जो शांति और व्यवस्था स्थापित की है, उसका विकल्प खोज लेना आसान नहीं है.

प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य और निशुल्क कराने की बात

गोपाल कृष्ण गोखले ने 1903 में अपने एक बजट-भाषण में कहा था कि भावी भारत दरिद्रता और असंतोष का भारत नहीं होगा बल्कि उद्योगों, जाग्रत शक्तियों और संपन्नता का भारत होगा. वे पाश्चात्य शिक्षा को भारत के लिए वरदान मानते थे और इसका अधिकाधिक विस्तार चाहते थे. उनका मानना था कि देश की तत्कालीन दशा में पाश्चात्य शिक्षा का सबसे बड़ा कार्य भारतीयों को पुराने, जीर्ण-शीर्ण विचारों की दासता से मुक्त कराना होगा.

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