ग्लोबल वार्मिंग : कारण प्रभाव उपाय तथा निष्कर्ष
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ग्लोबल वार्मिंग का अर्थ : भू-मण्डल के निरन्तर बढ़ते हुए तापमान को ‘ग्लोबल वार्मिंग’ या वैश्विक उष्णता कहा जाता है। ग्लोबल वार्मिंग वर्तमान समय की प्रमुख विश्वव्यापी पर्यावरणीय समस्या है। सौर विकीर्ण ऊर्जा का लगभग 51 प्रतिशत भाग लघु तरंगों के रूप में वायुमंडल को पार कर पृथ्वी के धरातल पर पहुंचता है। पृथ्वी का वायुमंडल ‘लघु तरंग का सौर्यिक विकिरण’ के लिए पारगम्य होता है। अत: सौर विकिरण बिना किसी रुकावट के धरातल पर पहुंचता है लघु तरंगें पृथ्वी से टकराकर ऊष्मा में परिवर्तित हो जाती हैं यह ऊष्मा दीर्घ तरंगी पार्थिव विकिरण द्वारा पुन: वायुमंडल में उपस्थित कुछ गैसें ऊष्मा की दीर्घ तरंगों (पार्थिव विकिरण) को अवशोषित कर लेती हैं तथा ऊष्मा की दीर्घ तरंगों को वायुमंडल से बाहर जाने से रोक देती हैं। पार्थिव विकिरण अवरुद्ध में वायुमंडल ग्रीन हाउस के शीशे की भांति काम करता है। शीत एवं शीतोष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों में निर्मित कांच के घरों में उष्णता बनी रहती है क्योंकि कांच लघु प्रकाश तरंगों के लिए पारदर्शी तथा दीर्घ ऊष्मीय तरंगों के लिए अपारदर्शी होता है। अत: सूर्य से आने वाली लघु प्रकाश तरंगें कांच को पार कर ‘कांच घर’ के वातावरण को गर्म करती हैं। भीतर प्रवेश कर चुकी ऊष्मा जब दीर्घ तरंगों के रूप में बाहर निकलने को बढ़ती है, तो कांच की दीवारें उन्हें बाहर निकलने से रोक देती हैं। जिससे कांच घर के भीतर के तापमान में अपेक्षाकृत वृद्धि हो जाती है। ठीक उसी प्रकार वायुमंडलीय गैसें ‘लघु तरंग विकिरण’ (सौर्यिक विकिरण) के लिए पारदर्शी होती हैं, किन्तु दीर्घतरंग विकिरण (पार्थिव विकिरण) के लिए अपारदर्शी होती हैं। अत: सौर विकिरण ऊर्जा लघु तरंगों के रूप में वायुमंडल को पार कर भूतल पर पहुंच जाती है, किन्तु दीर्घ तरंगी पार्थिव विकिरण पुन: वायुमंडल से बाहर नहीं जा पाती हैं।जिससे पृथ्वी के तापमान में वृद्धि हो जाती है। इसे हरित गृह प्रभाव कहा जाता है।
वायुमंडल में उपस्थित कार्बन डाइ ऑक्साइड (co2, 0.03%) गैस पृथ्वी के तापमान को बढ़ाने वाली प्रमुख गैस है। इसके अलावा मीथेन (CH4), क्लोरोफ्लोरो कार्बन (CFC), नाइट्रस आक्साइड, हेलोन (अग्निशमन यंत्रों से प्राप्त) आदि गैसें भी भूमंडलीय तापमान वृद्धि में योगदान देती हैं। ये गैसें दीर्घ तरंगी पार्थिव विकिरण को वायुमंडलीय से बाहर जाने से रोक देती हैं। पारिणामस्वरूप तापमान बढ़ने से पृथ्वी का ताप संतुलन बिगड़ जाता है। भूमंडलीय तापमान में इस वृद्धि को ही वैज्ञानिक शब्दावली में ‘ग्लोबल वार्मिंग’ कहा जाता है।
भू-मण्डलीय तापमान में वृद्धि की प्रवृत्ति
वायुमंडल में ग्रीन गैसों का निरंतर बढ़ता हुआ सान्द्रण भू-मंडलीय तापमान में वृद्धि के लिए उत्तरदायी है। 1861 के बाद पृथ्वी के तापमान में निरतंर वृद्धि हो रही है, क्योंकि 1861 से तापमान संबंधी उपकरणों द्वारा अंकित विश्वसनीय आंकड़े उपलब्ध हैं। ‘ग्लोबल वार्मिंग’ के संबंध में उचित जानकारी प्राप्त करने हेतु संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1988 में ‘Inter-Government Panel on Climate Change (IPCC)’ का गठन किया गया। प्रारंभिक अनुमान के अनुसार 1861 से 1990 तक पृथ्वी के औसत तापमान में 0.60C की वृद्धि हुई जो 2020 तक बढ़कर 1.50C तक होने की संभावना है। धरती के बढ़ते तापमान पर अब तक के सर्वाधिक विश्वसनीय आंकड़े जुटाते हुए IPCC ने 3 फरवरी 2007 को पेरिस मे एक रिपोर्ट में ‘ग्लोबल वार्मिंग’ के लिए मानव समाज को प्रमुख अभियुक्त माना गया है। इस रिपोर्ट के अनुसार 1900 से 2006 तक पृथ्वी के औसत तापमान में 0.70C से 0.80C तक वृद्धि हो चुकी है तथा यह अनुमान व्यक्त किया गया है कि सन् 2100 तक पृथ्वी के तापमान में 1.10C से 6.40C तक वृद्धि हो सकती है। एक अनुमान के अनुसार 20वीं शताब्दी पिछले 1000 वर्षों में सबसे गर्म शताब्दी रही है जबकि 1990 का दशक सबसे गर्म दशक रहा है। 1998 का वर्ष अब तक का सर्वाधिक गर्म वर्ष माना जाता है। स्मरणीय तथ्य यह है कि अब तक के सर्वाधिक गर्म 10 वर्ष 1994 के बाद ही पड़े। मौसम वैज्ञानिकों के अनुसार वर्ष 2007 अब तक का सबसे गर्म वर्ष रहने की संभावना है। 1950 ई. के बाद पृथ्वी के औसत तापमान में 0.10C की दर से दशकीय वृद्धि अंकित की गयी है। इस प्रकार प्रथ्वी के औसत तापमान में निरंतर वृद्धि ग्लोबल वार्मिंग का सूचक है।
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ग्लोबल वार्मिंग का अर्थ : भू-मण्डल के निरन्तर बढ़ते हुए तापमान को ‘ग्लोबल वार्मिंग’ या वैश्विक उष्णता कहा जाता है। ग्लोबल वार्मिंग वर्तमान समय की प्रमुख विश्वव्यापी पर्यावरणीय समस्या है। सौर विकीर्ण ऊर्जा का लगभग 51 प्रतिशत भाग लघु तरंगों के रूप में वायुमंडल को पार कर पृथ्वी के धरातल पर पहुंचता है। पृथ्वी का वायुमंडल ‘लघु तरंग का सौर्यिक विकिरण’ के लिए पारगम्य होता है। अत: सौर विकिरण बिना किसी रुकावट के धरातल पर पहुंचता है लघु तरंगें पृथ्वी से टकराकर ऊष्मा में परिवर्तित हो जाती हैं यह ऊष्मा दीर्घ तरंगी पार्थिव विकिरण द्वारा पुन: वायुमंडल में उपस्थित कुछ गैसें ऊष्मा की दीर्घ तरंगों (पार्थिव विकिरण) को अवशोषित कर लेती हैं तथा ऊष्मा की दीर्घ तरंगों को वायुमंडल से बाहर जाने से रोक देती हैं। पार्थिव विकिरण अवरुद्ध में वायुमंडल ग्रीन हाउस के शीशे की भांति काम करता है। शीत एवं शीतोष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों में निर्मित कांच के घरों में उष्णता बनी रहती है क्योंकि कांच लघु प्रकाश तरंगों के लिए पारदर्शी तथा दीर्घ ऊष्मीय तरंगों के लिए अपारदर्शी होता है। अत: सूर्य से आने वाली लघु प्रकाश तरंगें कांच को पार कर ‘कांच घर’ के वातावरण को गर्म करती हैं। भीतर प्रवेश कर चुकी ऊष्मा जब दीर्घ तरंगों के रूप में बाहर निकलने को बढ़ती है, तो कांच की दीवारें उन्हें बाहर निकलने से रोक देती हैं। जिससे कांच घर के भीतर के तापमान में अपेक्षाकृत वृद्धि हो जाती है। ठीक उसी प्रकार वायुमंडलीय गैसें ‘लघु तरंग विकिरण’ (सौर्यिक विकिरण) के लिए पारदर्शी होती हैं, किन्तु दीर्घतरंग विकिरण (पार्थिव विकिरण) के लिए अपारदर्शी होती हैं। अत: सौर विकिरण ऊर्जा लघु तरंगों के रूप में वायुमंडल को पार कर भूतल पर पहुंच जाती है, किन्तु दीर्घ तरंगी पार्थिव विकिरण पुन: वायुमंडल से बाहर नहीं जा पाती हैं।जिससे पृथ्वी के तापमान में वृद्धि हो जाती है। इसे हरित गृह प्रभाव कहा जाता है।