गुम होता बचपन विषय पर एक फीचर लिखिए point by point
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बचपन एक ऐसी उम्र होती है, जब बगैर किसी तनाव के मस्ती से जिंदगी का आनन्द लिया जाता है। नन्हे होंठों पर फूलों सी खिलती हँसी, वो मुस्कुराहट, वो शरारत, रूठना, मनाना, जिद पर अड़ जाना ये सब बचपन की पहचान होती है। सच कहें तो बचपन ही वह वक्त होता है, जब हम दुनियादारी के झमेलों से दूर अपनी ही मस्ती में मस्त रहते हैं।
क्या कभी आपने सोचा है कि आज आपके बच्चों का वो बेखौफ बचपन कहीं खो गया है? आज मुस्कुराहट के बजाय इन नन्हे चेहरों पर उदासी व तनाव क्यों छाया रहता है? अपनी छोटी सी उम्र में पापा और दादा के कंधों की सवारी करने वाले बच्चे आज कंधों पर भारी बस्ता टाँगे बच्चों से खचाखच भरी स्कूल बस की सवारी करते हैं।
छोटी सी उम्र में ही इन नन्हो को प्रतिस्पर्धा की दौड़ में शामिल कर दिया जाता है और इसी प्रतिस्पर्धा के चलते उन्हें स्वयं को दूसरों से बेहतर साबित करना होता है। इसी बेहतरी व प्रतिस्पर्धा की कश्मकश में बच्चों का बचपन कहीं खो सा जाता है।
आज मुस्कुराहट के बजाय इन नन्हे चेहरों पर उदासी व तनाव क्यों छाया रहता है? अपनी छोटी सी उम्र में पापा और दादा के कंधों की सवारी करने वाले बच्चे आज कंधों पर भारी बस्ता टाँगे बच्चों से खचाखच भरी स्कूल बस की सवारी करते हैं।
इस पर भी माँ-बाप उन्हें गिल्ली-डंडे, लट्टू, कैरम व बेट-बॉल की जगह वीडियोगेम थमा देते हैं, जो उनके स्वभाव को ओर अधिक उग्र बना देते हैं। अक्सर यह देखा जाता है कि दिनभर वीडियोगेम से चिपके रहने वाले बच्चों में सामान्य बच्चों की अपेक्षा चिड़चिड़ापन व गुस्सैल प्रवृत्ति अधिक पाई जाती है।
आजकल होने वाले रियलिटी शो भी बच्चों के कोमल मन में प्रतिस्पर्धा की भावना को बढ़ा रहे हैं। नन्हे बच्चे जिन पर पहले से ही पढाई का तनाव रहता है। उसके बाद कॉम्पीटिशन में जीत का दबाव इन बच्चों को कम उम्र में ही बड़ा व गंभीर बना देता है।
अब उन्हें अपने बचपन का हर साथी अपना प्रतिस्पर्धी नजर आता है, जिसका बुरा से बुरा करने को वे हरदम तैयार रहते हैं। क्या आप जानते हैं कि एनिमिनेशन के द्वारा बच्चों को प्रतियोगिता से अचानक उठाकर बाहर कर देना उनके कोमल मन पर क्या प्रभाव डालता होगा?
नौकरीपेशा माता-पिता के लिए अपने बच्चों को दिनभर व्यस्त रखना या किसी के भरोसे छोड़ना एक फायदे का सौदा होता है क्योंकि उनके पास तो अपने बच्चों के लिए खाली वक्त ही नहीं होता है इसलिए वे बच्चों के बचपन को छीनकर उन्हें स्कूल, ट्यूशन, डांस क्लासेस, वीडियोगेम आदि में व्यस्त रखते हैं, जिससे कि बच्चा घर के अंदर दुबककर अपना बचपन ही भूल जाए।
बाहर की हवा, बाग-बगीचे, दोस्तों के साथ मौज-मस्ती यह सब क्या होता है, उन्हें नहीं पाता। हाँ नया वीडियोगेम कौन सा है या कौन सी नई एक्शन मूवी आई है, ये इन बच्चों को बखूबी पता होता है।
पढ़ाई-लिखाई अपनी जगह है, आज के दौर में उसकी अहमियत को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है परंतु बच्चों का बचपन भी दोबारा लौटकर नहीं आता है। कम से कम इस उम्र में तो आप उन्हें खुला दें और उन्हें बचपन का पूरा लुत्फ उठाने दें।
आज कल वो बचपन गुम सा हो गया है जहा न कोई गुली डंडा ,लुका छिप्पी, और चोर सिपाही खेलता हुआ नजर आता है।आज न जाने ये सारे खेल कहा छुप से गये है।आज वो बचपन, भारी क़िताबों द्वारा और बच्चों द्वारा काम करवाये जाने से बच्चो ने अपनी ज़िंदगी का वो पल खो से दिया है। सबके चेहरे में बस काम का भार औऱ पैसे कमाने की मज़बूरी ने बचपन के उन हसीन लम्हों से दूर कर दिया है। इन बच्चो की ज़िंदगी एक किताब,मोबाइल, और पैसे कमाने में सीमट सी गयी है।एक समय में जहाँ बच्चे अपने हाथ में खिलौने लिया करते थे वहाँ आज उनके हाथों में किताबो का ढेर नज़र आता है।जहाँ बच्चे अपने पिता के कंधे पर बैठा करते थे वहीं आज वो बच्चे अपने कंधे पर किताबो से भरा हुआ बस्ता संभालते हुए नज़र आते है। जहाँ बच्चे रात हो या दिन पूरे दिन हँसना और माँ -बाप के साथ समय गुज़ारा करते थे, वहीं दूसरी तरफ आज वो बच्चे थके और गुमसुम नज़र आते है। कितना अजीब है ना ये बचपन छोटे से हाथो में गुलदस्ता ,अखबार,और खाने का सामान बेचना और तो और अत्याचार सहना ,इतनी छोटी सी उम्र में जहाँ बच्चो को प्यार की जरूरत होती है वही बच्चे अत्याचार के पात्र बन जाते है।आज कल बच्चे शिक्षा,नृत्य,और, गीत आदि जैसे प्रतियोगिता में हिस्सा लेना पसंद करते है ये सही तो है परंतु मित्र और अपने से बड़े भाई बहनों को इस तरह की प्रतियोगिता में देख कर शत्रु समझ बैठना उनके मन में छल कपट पैदा कर देता है । इसकासबसे बड़ा कारण आज के वो रियालिटी शो है जो बच्चो के मन में प्रतिस्पर्धा की भावना को जागरूक करता है जो आज कल के बच्चो को छोटी सी उम्र में गंभीर सोच पैदा कर देता है। जहाँ उन्हें अपने हर मित्र और भाई बहन प्रतिस्पर्धा लगने लगते है।अब चलते है उस दुनियाँ में जहाँ बच्चे छोटी सीउम्र में माँ बाप का बोझ अपने कंधे पर उठा लेते है जहाँ वो अपना बचपन पैसे कमाने और माँ बाप का दूसरा कंधा बनने के लिए काम का पात्र बन जाते है।जहाँ ये बच्चे बचपन के अर्थ से वाकिफ़ ही नही है। इन बच्चो का न कोई सहारा है दुनिया देख कर भी इनको ठुकरा देती है औऱ काम करवाते वक़्त इन पर अत्याचार, क्या करेगा वो भी बच्चा क्योंकि वो भी मजबूर है खाने को एक वक़्त की रोटी नही ,रहने को छत नही ,पहनने को कपड़े नही, एक मात्र काम करना ही उनका सहारा है जिसमे कम से कम दो वक्त की रोटी तो नसीब है । जहाँ उन्हें गुल्ली डंडा खेलना था वहाँ आज वो होटल में नन्हे हाथो से बर्तन धोते हुए नज़र आते है ,जहाँ उनको कलम और किताबो को पकड़ना था वहाँ आज वो नोट की गदिया का ज्ञान रखते है । जहाँ उनको खेलना कूदना था वहाँ उनकी ज़िंदगी आज खेलकूद बन चुकी है
माँ बाप की नॉकरी जो अपने आपको व्यस्त रखती है ,बच्चो को पड़ोसी या दादी-दादा ,के पास छोड़ जाना ,बच्चो को माँ बाप से कहि न कहि दूर कर देता है ।जहाँ न वो बच्चे अपने मन की बात आपसे बता सकते और न ही आप पूछ पाते है क्योंकि आप अपने काम पर पूरा दिन व्यस्त रहते है और थके हुए जब घर आते है तो आप अपने बच्चो के साथ समय नही बिता पाते है