गुन के गाहक सहस नर, बिन गुन लहै न कोय ।
जैसे कागाकोकिला-, शब्द सुनै सब कोय ।।
शब्द सुनै सब कोय, कोकिला सबै सुहावन ।
दोऊ के एक रंग, काग सब भये अपावन ।।
कह गिरिधर कविराय, सुनौ हो ठाकुर मन के ।
बिन गुन लहै न कोय, सहस नर गाहक गुन के ।।
देखा सब संसार में, मतलब का व्यवहार |
जब लगि पैसा गाँठ में, तब लगि ताको यार ।।
तब लगि ताको यार, यार सँग ही सँग डोलै
पैसा रहा न पास, यार मुख से नहि, बोले ।।
कह गिरिधर कविराय, जगत का ये ही लेखा ।
करत बेगरजी प्रीति, मित्र कोई बिरला देखा ।। bhavarth
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इस कविता के कवि गिरिधर कविराय हैं।
इसमें प्रश्न क्या था
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