गुणेष्वेव हि कर्तव्यः प्रयत्नः पुरुषैः सदा।
गुणयुक्तो दरिद्रोऽपि नेश्वरैरगुणैः समः।।5।।
आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण
लध्वी पुरा वृद्धिमती च पश्चात्।
दिनस्य पूर्वार्द्धपरार्द्धभिन्ना
छायेव मैत्री खलसज्जनानाम्।।6।।
यत्रापि कुत्रापि गता भवेयु-
हंसा
महीमण्डलमण्डनाय।
हानिस्तु तेषां हि सरोवराणा
येषां मरालैः सह विप्रयोग:।।7।।
गुणा गुणज्ञेषु गुणा भवन्ति
ते निर्गुण प्राप्य भवन्ति दोषा:।
आस्वाद्यतोया: प्रवहन्ति नद्यः
समुद्रमासाद्य भवन्त्यपेया:118।।
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गुणेष्वेव हि कर्तव्यः प्रयत्नः पुरुषैः सदा।
गुणयुक्तो दरिद्रोऽपि नेश्वरैरगुणैः समः।।5।।
अर्थ ⦂ मनुष्य को हमेशा अपने गुणों के प्राप्त करने और उन्हें विकसित करने का ही प्रयास करना चाहिए। निर्धन व्यक्ति कितना भी निर्धन क्यों न हो लेकिन यदि वह गुणवान है तो उसकी बराबरी ऐश्वर्यशाली और गुणहीन व्यक्ति नही कर सकता। धनहीन लेकिन गुणवान व्यक्ति धनवान लेकिन गुणवान व्यक्ति से श्रेष्ठ होता है।
आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण
लध्वी पुरा वृद्धिमती च पश्चात्।
दिनस्य पूर्वार्द्धपरार्द्धभिन्ना
छायेव मैत्री खलसज्जनानाम्।।6।।
अर्थ ⦂ आरंभ में लंबी और फिर धीरे-धीरे छोटे होने वाली तथा फिर छोटी और फिर धीरे-धीरे बढ़ने वाली पूर्व तथा अपराह्न काल के समय की छाया की तरह दुष्ट और सज्जनों की मित्रता अलग-अलग प्रकार की होती है। अर्थात दुष्ट और सज्जन व्यक्ति की मित्रता में भिन्नता होती है।
यत्रापि कुत्रापि गता भवेयु-हंसा
महीमण्डलमण्डनाय।
हानिस्तु तेषां हि सरोवराणा
येषां मरालैः सह विप्रयोग:।।7।।
अर्थ ⦂ जो हंस पृथ्वी को सुशोभित करते हैं, वे हंस इस पूरी पृथ्वी पर कहीं पर प्रवेश और निवास कर लेते हैं, इससे उनको कोई हानि नही। असली हानि तो उन सरोवरो को होती है, जिनको छोड़कर वे हंस चले जाते हैं।
गुणा गुणज्ञेषु गुणा भवन्ति
ते निर्गुण प्राप्य भवन्ति दोषा:।
आस्वाद्यतोया: प्रवहन्ति नद्यः
समुद्रमासाद्य भवन्त्यपेया:118।।
अर्थ ⦂ जब तक गुण गुणवान और सुपात्र व्यक्ति में रहते है, वे सगुण कहलाते हैं, यदि यही गुण अपात्र और गुणहीन व्यक्ति को मिल जाते हैं, तो वे दुर्गुण और दोष बन जाते हैं। बिल्कुल उसी प्रकार जैसे नदियों का जल निर्मल और पीने योग्य होता है, जबकि समुद्र का पानी मिलने पर उन नदियों का जल पीने योग्य नही रह जाता।
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