गुप्त ज्ञान के आधार पर कुछ खानदानी दंगों के नाम गिनाए
Answers
Explanation:
सहजानन्द सरस्वती
संपादन - राघव शरण शर्मा
अनुक्रम दूसरा : गीता भाग पीछे आगे
पूर्वापर संबंध
गीताहृदय का अंतरंग भाग या पूर्व भाग लिख चुकने के बाद, जैसा कि उसके शुरू में ही कहा जा चुका है, उसके मध्य के गीताभाग का लिखा जाना जरूरी हो जाता है। जिस जानकारी की सहायता के ही लिए वह भाग लिखा गया है और इसीलिए अंतरंग भाग कहा जाता भी है, उसके बाद उसी बात का लिखना अर्थ सिद्ध हो जाता है। अंतरंग भाग के पढ़ लेने पर गीता हृदय के इस दूसरे भाग के पढ़ने की आकांक्षा खुद-ब-खुद हो जाएगी। लोग खामख्वाह चाहेंगे कि उसके सहारे गीतासागर में गोता लगाएँ। उसके पढ़ने से इसके समझने में - गीता का अर्थ और अभिप्राय हृदयंगम करने में - आसानी हो जाएगी। इसीलिए इसे पूरा किया जाना जरूरी हो गया।
हमने कोशिश की है कि जहाँ तक हो सके श्लोकों के सरल अर्थ ही लिखे जाए जो शब्दों से सीधे निकलते हैं। बेशक, गीता अत्यंत गहन विषय का प्रतिपादन करती है, सो भी अपने ढंग से। साथ ही इसकी युक्ति दार्शनिक है, यद्यपि प्रतिपादन की शैली है पौराणिक। इसलिए शब्दों के अर्थों के समझने में कुछ दिक्कत जरूर होती है, जब तक अच्छी तरह प्रसंग और पूर्वापर के ऊपर ध्यान न दिया जाए। हमने इस दिक्कत को बहुत कुछ अंतरंग भाग में दूर भी कर दिया है। फिर भी उसका आना अनिवार्य है। अत: ऐसे ही स्थानों में श्लोकों के अर्थ लिखने के बाद छोटी या बड़ी टिप्पणी दे दी गई जिससे उलझन सुलझ जाए और आशय झलक पड़े।
आशा है, यह भाग पूर्व भाग के साथ मिल के लोगों को - गीता-प्रेमियों को - संतुष्ट कर सकेगा। गीतार्थ-अवगाहन के लिए उनका मार्ग तो कम से कम साफ करी देगा।
(शीर्ष पर वापस)
प्रवेशिका
जिनने ज्यादा गौर नहीं किया है, या जो ध्यान से गीता नहीं पढ़ते, लेकिन इतना जानते हैं कि गीता महाभारत में ही लिखी है और उसी बड़ी पोथी में से अलग करके इसका पठन-पाठन तथा प्रचार होता है, वह आमतौर से ऐसा ही समझते हैं कि महाभारत के युद्ध के आरंभ होने के पहले ही उसका प्रसंग आने के कारण वह महाभारत की पोथी में भी उद्योग पर्व के बाद ही या भीष्म पर्व के शुरू होने के पहले ही लिखी गई होगी। यदि और नहीं तो इतना तो खयाल उन्हें अवश्य होता होगा कि गीतोपदेश को सुनने के बाद ही लड़ाई की बात धृतराष्ट्र को मालूम हुई होगी और भीष्म आदि की मृत्यु की भी।
मगर दरअसल बात ऐसी है नहीं। यह सही है कि युद्धारंभ के पहले ही कृष्ण और अर्जुन के बीच गीतावाला संवाद हुआ, जिसे आज की भाषा में एक तरह का चखचुख भी कह सकते हैं। यदि देखा जाए तो गीता के दूसरे अध्याय के शुरू में, गीता के असली उपदेश के पहले, जो बातें कृष्ण एवं अर्जुन के बीच हो गई हैं वह चखचुख जैसी ही हैं। कृष्ण कहते हैं कि भई, ऐन लड़ाई के समय पर ही यह बड़ी बुरी कमजोरी तुममें कहाँ से आ गई? राम, राम, इसे दूर करो और फौरन कमर बाँध के तैयार हो जाओ। नामर्द की तरह कमर तोड़ के यह बैठ क्या गए हो? इस पर अर्जुन अपने इस काम के, इस मनोवृत्ति के समर्थन के लिए दलीलें करता और कहता है कि पूजनीय गुरुजनों के चरणों पर चंदन, पुष्पादि चढ़ाने के बदले उनके कलेजे में तीर बेधूँ? यह नहीं होने का। इन्हें मार के इन्हीं के खून से रंगे राजपाट जहन्नुम जाएँ। मैं इन्हीं हर्गिज नहीं मारने का। यही न होगा कि न लड़ने पर राजपाट न मिलेगा? तो इसमें हर्ज ही क्या है? इन्हें न मारने पर तो भीख माँग के गुजर करना भी कहीं अच्छा है। यह राजपाट ठीक है या वह भिक्षावृत्ति, इसका भी निर्णय तो हो पाता नहीं। मैं तो घपले में पड़ा हूँ। यह भी तो निश्चय नहीं कि हमीं लोग खामख्वाह जीतेंगे ही। ऐसी दशा में मुझे तो भिक्षावाला पक्ष ही अच्छा मालूम होता है।