गुप्तकालीन कला और विज्ञान का विकास बताइए
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प्राचीन भारत में स्थापत्य, मूर्ति एवं चित्रकला आदि क्षैत्रों में विकास की चरमसीमा गुप्तकाल में प्राप्त होती हैं। यह काल कला के भारतीयकरण, सौन्दर्याभिव्यक्ति, भावचित्रण एंव आध्यात्मिकता का अंकन के लिए जाना जाता हैं। इसमें रूढिवादिता का अभाव, स्वाभाविक एवं यथार्थवादिता का अंकन, सास्कृतिक एवं प्राकृतिक सौन्दर्य के अनुरूप सृजन, आध्यात्मिक आदर्श, कला तकनीक की सादगी और अभिव्यंजना, लावण्य और लालित्य का संयमित प्रदर्शन मिलता हैं।
वास्तुकला में इस समय नागर शैली का अधिक विकास हुआ। इसमें आधार पीठिका, गर्भगृह, सभामण्डप, शिखर, प्रदक्षिणा पथ तथा द्वार पर गंगा यमुना की मूर्तियां उल्लेखनीय हैं।
इसके अतिरिक्त विहार, स्तूप, गुहा और चैत्य आदि निर्मित हुए।
मूर्तिकला - मथुरा, सारनाथ और पाटलिपुत्र मूर्तिकला के प्रमुख केन्द्र थे। परिधान महत्ता, अलंकृत प्रभामण्डल, विशेष केश सज्जा, मुद्रा आसन, आध्यात्मिकता, सरलता और भारतीयकरण इसकी प्रमुख विशेषताएं हैं।
चित्रकला - अजन्ता, एलोरा एवं बाघ की गुफाएं उल्लेखनीय हैं। सुन्दर कल्पना, रंगो की प्रभा, रेखाओं का लालित्य, विषय वस्तु की विविधता, अभिव्यक्ति से सम्पन्नता और अभिव्यंजना के कौशल इनकी विशेषताएं हैं।
विज्ञान प्रौधोगिकी - गणित, ज्योतिष, खगोल, रसायन, भौतिक, आयुर्वेद, शल्यचिकित्सा, आदि का विकास प्रमुख रूप से हुआ।
आर्यभट्ट ने दशगीतिक सुत्र , आर्याष्ट शतक ग्रंथ लिखे। पृथ्वी का गोल होना और धूरी पर घूर्णन का सिद्धान्त दिया। भास्कर प्रथम ने भाष्य ग्रंथ एवं आर्यभट्ट के ग्रंथो पर टीकाएं लिखी। वराहमिहिर ने रोमक तथा पौलिश का सिद्धान्त दिया। वर्गमूल तथा घनमूल निकालने की विधियां दी। ब्रह्मगुप्त ने ब्रह्मफुट सिद्धान्त तथा खण्ड खाद्यक ग्रंथ एंव गुरूत्वाकर्षण का सिद्धान्त दिया। अष्टांग हृद्य तथा नवनीतकम आयुर्वेद ग्रंथ लिखे गए।
कणाद का वैशेषिक सुत्र एवं अणु सिद्धान्त, नागार्जुन का रसायन एवं धातु विज्ञान तथा मैहरोली का लौह स्तम्भ एवं सुल्तानगंज की ताम्र मूर्ति इस काल की कला के उदाहरण हैं।
इस प्रकार कह सकते हैं कि यह काल भारतीय इतिहास का स्वर्ण काल था।