History, asked by bhupendra90, 11 months ago

गुप्तकालीन कला और विज्ञान का विकास बताइए​

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Answered by shishir303
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गुप्तकाल में काल—

गुप्तकाल में कला का विकास भारत में गुप्त साम्राज्य के शासनकाल में  बड़े उल्लेखनीय रूप से हुआ।

गुप्त काल में कला की विविध विधाओं जैसे वास्तुकला, स्थापत्यकला, चित्रकला आदि में अभूतपूर्ण प्रगति हुई। गुप्तकालीन स्थापत्य कला के सर्वोच्च उदाहरण गुप्तकाल में निर्मित हुये मंदिर थे। इनमें विष्णुमंदिर, तिगवा (जबलपुर मध्य प्रदेश)  शिव मंदिर, भूमरा (नागोद मध्य प्रदेश), पार्वती मंदिर, नचना-कुठार (मध्य प्रदेश), दशावतार मंदिर, देवगढ़ (झांसी, उत्तर प्रदेश), शिवमंदिर, खोह (नागौद, मध्य प्रदेश), भीतरगांव का मंदिर लक्ष्मण मंदिर (ईटों द्वारा निर्मित), भितरगांव (कानपुर, उत्तर प्रदेश) आदि प्रमुख हैं।

गुप्तकालीन मंदिर एक ऊँचे चबूतरें पर निर्मित किए जाते थे और चबूतरे पर चढ़ने के लिए चारों ओर से सीढ़ियां बनाई जाती थीं। देवी या देवता की मूर्ति को मंदिर के गर्भगृह में स्थापित किया जाता था और गर्भगृह के चारों ओर ऊपर से घिरे हुये प्रदक्षिणा मार्ग का निर्माण किया जाता था। गुप्तकालीन मंदिरों कपाटों पर गंगा, यमुना, शंख व पद्म की आदि की आकृतियां बनी होती थी।  गुप्तकाल के अधिकतर मंदिर छोटी-छोटी ईटों व पत्थरों से बनाये जाते थे।

गुप्तकालीन काल में मूर्तिकला अपने चरम पर थी। अधिकांश मूर्तियाँ हिन्दू देवी-देवताओं की होती थीं। गुप्तकला की मूर्तियों में उसके पूर्ववर्ती कालों की तरह नग्नता या अश्लीलता नही होती थी बल्कि मूर्तियों पर वस्त्रों का भी प्रयोग किया जाता था। मूर्तियों के निर्माण में सभ्यता और शालीनता का पूरा ध्यान रखा जाता था।

बौद्ध मंदिरों व बुद्ध की मूर्तियों का निर्माण भी गुप्तकाल में किया जाता था। प्रमुख बुद्ध की मूर्तियों में सारनाथ की बैठे हुए बुद्ध की मूर्ति, मथुरा में खड़े हुए बुद्ध की मूर्ति एवं सुल्तानगंज की कांसे की बुद्ध मूर्ति का उल्लेखनीय हैं।

भगवान शिव के अनेक शिवलिंगों का निर्माण गुप्तकाल में हुआ। जिनमें ‘एकमुखी‘ एवं 'चतुर्मुखी' शिवलिंग प्रमुख हैं। गुप्तकाल में ही शिव के ‘अर्धनारीश्वर‘ रूप की रचना भी की गयी। देवगढ़ के दशावतार मंदिर विष्णु की प्रसिद्ध मूर्ति का निर्माण भी गुप्तकाल में हुआ।

प्रसिद्ध चीनी यात्री फाह्यान ने जब भारत का भ्रमण किया तो उसने अपने संस्मरण में गुप्तकाल के राजाओं के राजप्रासाद और मंदिरों की बहुत प्रशंसा की है।

अजन्ता, एलोरा आदि की गुफाओं का निर्माण गुप्तकाल में ही हुआ है।

गुप्तकाल में विज्ञान—

गुप्तकाल में विज्ञान का समुचित विकास हुआ था। गुप्तकालीन समय में विज्ञान के अंतर्गत मुख्यत: गणित, ज्योतिष और आयुर्वेद का भरपूर विकास हुआ। आर्यभट्ट, वराहमिहिर और ब्रह्मगुप्त वैज्ञानिक गुप्तकाल की देन हैं। इन विद्वानों के ग्रन्थ विज्ञान विज्ञान विषयपरक होते थे।

आर्यभट्ट ने शून्य की खोज की। दशमलव प्रणाली को सिद्धांत प्रतिपादित किया। आर्यभट्ट ने ही पृथ्वी को गोल बताया और उसकी परिधि का अनुमान लगाया। आर्यभट्ट पृथ्वी को गोल बताने वाले विश्व के पहले व्यक्ति थे। उन्होंने ही सिद्ध किया कि चंद्रमा पृथ्वी और सूर्य के एक सीध में आ जाने के कारण ही सूर्य ग्रहण या चंद्रग्रहण पड़ता है। उन्होंने जनमानस व्याप्त इस अंधविश्वास को दूर किया कि राह-केतु के ग्रास के कारण ग्रहण पड़ता है। आर्यभट्ट द्वारा रचे गये प्रमुख ग्रंथ आर्यभट्टीयम्, दशगीतिक सूत्र और आर्याष्टशतक हैं।

गुप्तकाल के दूसरे प्रसिद्ध विज्ञानी वराहमिहिर थे। उन्होंने यूनानी और भारतीय ज्योतिष का समन्वय करके नये सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया जिससे भारतीय ज्योतिष को एक नया आयाम मिला। उनके द्वारा रचे प्रमुख ग्रंथ हैं पंथ सिद्धान्तिका, विवाहपटल, योगमाया, बृहत्संहिता, वृहज्जातक और लघुजातक

ब्रह्मगुप्त भी गुप्तकालीन समय के प्रसिद्ध और महान गणितज्ञ थे। उन्होंने ने न्यूटन से कई सहस्त्र वर्ष पूर्व ही गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त का प्रतिपादन कर दिया था कि सारी वस्तुएँ पृथ्वी पर गिरती हैं क्योंकि पृथ्वी का स्वभाव ही सभी को अपनी ओर खींचना है। ब्रह्मागुप्त द्वारा रचे गये प्रमुख ग्रंथ ब्रह्मस्फुटसिद्धांत, खंडखाद्य और ध्यानग्रह आदि थे।

वाग्भट्ट भी गुप्तकाल के प्रसिद्ध रसायन शास्त्री थे जिन्होंने रसरत्न समुच्चय, अष्टांग हृदय आदि ग्रंथों की रचना की।

एक अन्य रसायन शास्त्री नागार्जुन नें रस चिकित्सा का आविष्कार किया। पारे की खोज की। नागार्जुन ने ही ये सिद्धांत प्रतिपादित किया कि सोना, चाँदी, तांबा, लौह आदि खनिज धातुओं में भी रोग प्रतिरोधक क्षमता होती है। नागार्जुन के प्रमुख ग्रंथों में लोहशास्त्र, रसरत्नाकर, कक्षपुट, आरोग्यमजरी, योगसार, रसंन्द्रमगल, रतिशास्त्र, रसकच्छा पुट और सिद्धनागार्जुन हैं।

आर्युवेद का पर्याप्त विकास गुप्तकाल में हुआ था और अनेक उल्लेखनीय ग्रंथ लिखे गये। गुप्तकाल के विश्वविद्यालों जैसे नालंदा विश्वविद्यालय में आर्युवेद पर पर्याप्त अध्ययन होता था। गुप्तकाल में आर्युवेद पर लिखे गये ग्रंथों में नवकीतनम् प्रमुख हैं।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि गुप्तकाल में कला और विज्ञान अपने उन्नत शिखर पर थे।

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