Art, asked by gokulvarma97544, 3 months ago

गुरूगोविन्द सिंह मातुःनाम किम्​

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Answered by jhas78102
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गुरु गोबिन्द सिंह (गुरु गोबिंद सिंह) (जन्म:पौष शुक्ल सप्तमी संवत् 1723 विक्रमी तदनुसार 22 दिसंबर (दिसम्बर) 1666- मृत्यु 7 अक्टूबर 1708 ) सिखों के दसवें गुरु थे। उनके पिता गुरू तेग बहादुर की मृत्यु के उपरान्त 11 नवंबर (नवम्बर) सन 1675 को वे गुरू बने। वह एक महान योद्धा, कवि, भक्त एवं आध्यात्मिक नेता थे। सन 1699 में बैसाखी के दिन उन्होने खालसा पंथ (पन्थ) की स्थापना की जो सिखों के इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण दिन माना जाता है।[1]

गुरु गोबिन्द सिंह जी

ਗੁਰੂ ਗੋਬਿੰਦ ਸਿੰਘ

Guru Gobind Singh.jpg

जन्म

गोबिन्द राय

22 दिसंबर , 1666

पटना बिहार, भारत

मृत्यु

7 अक्टूबर 1708 (उम्र 42)

नांदेड़, महाराष्ट्र, भारत

पदवी

सिखों के दसवें गुरु

प्रसिद्धि कारण

दसवें सिख गुरु, सिख खालसा सेना के संस्थापक एवं प्रथम सेनापति

पूर्वाधिकारी

गुरु तेग बहादुर

उत्तराधिकारी

गुरु ग्रंथ साहिब

जीवनसाथी

माता जीतो, माता सुंदरी, माता साहिब देवां

बच्चे

अजीत सिंह

जुझार सिंह

जोरावर सिंह

फतेह सिंह

माता-पिता

गुरु तेग बहादुर, माता गूजरी

सिख धर्म

पर एक श्रेणी का भाग

Om

सिख सतगुरु एवं भक्त

सतगुरु नानक देव · सतगुरु अंगद देव

सतगुरु अमर दास · सतगुरु राम दास ·

सतगुरु अर्जन देव ·सतगुरु हरि गोबिंद ·

सतगुरु हरि राय · सतगुरु हरि कृष्ण

सतगुरु तेग बहादुर · सतगुरु गोबिंद सिंह

भक्त कबीर जी · शेख फरीद

भक्त नामदेव

धर्म ग्रंथ

आदि ग्रंथ साहिब · दसम ग्रंथ

सम्बन्धित विषय

गुरमत ·विकार ·गुरू

गुरद्वारा · चंडी ·अमृत

नितनेम · शब्दकोष

लंगर · खंडे बाटे की पाहुल

गुरू गोबिन्द सिंह ने सिखों की पवित्र ग्रंथ (ग्रन्थ) गुरु ग्रंथ साहिब को पूरा किया तथा उन्हें गुरु रूप में सुशोभित किया। बिचित्र नाटक को उनकी आत्मकथा माना जाता है। यही उनके जीवन के विषय में जानकारी का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत है। यह दसम ग्रन्थ का एक भाग है। दसम ग्रंथ (ग्रन्थ), गुरू गोबिन्द सिंह की कृतियों के संकलन का नाम है।

उन्होने मुगलों या उनके सहयोगियों (जैसे, शिवालिक पहाडियों के राजा) के साथ 14 युद्ध लड़े। धर्म के लिए समस्त परिवार का बलिदान उन्होंने किया, जिसके लिए उन्हें 'सरबंसदानी' (सर्ववंशदानी) भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त जनसाधारण में वे कलगीधर, दशमेश, बाजांवाले आदि कई नाम, उपनाम व उपाधियों से भी जाने जाते हैं।

गुरु गोविंद सिंह जहां विश्व की बलिदानी परम्परा में अद्वितीय थे, वहीं वे स्वयं एक महान लेखक, मौलिक चिंतक तथा संस्कृत सहित कई भाषाओं के ज्ञाता भी थे। उन्होंने स्वयं कई ग्रंथों की रचना की। वे विद्वानों के संरक्षक थे। उनके दरबार में 52 कवियों तथा लेखकों की उपस्थिति रहती थी, इसीलिए उन्हें 'संत सिपाही' भी कहा जाता था। वे भक्ति तथा शक्ति के अद्वितीय संगम थे।[2]

उन्होंने सदा प्रेम, एकता, भाईचारे का संदेश दिया। किसी ने गुरुजी का अहित करने की कोशिश भी की तो उन्होंने अपनी सहनशीलता, मधुरता, सौम्यता से उसे परास्त कर दिया। गुरुजी की मान्यता थी कि मनुष्य को किसी को डराना भी नहीं चाहिए और न किसी से डरना चाहिए। वे अपनी वाणी में उपदेश देते हैं भै काहू को देत नहि, नहि भय मानत आन। वे बाल्यकाल से ही सरल, सहज, भक्ति-भाव वाले कर्मयोगी थे। उनकी वाणी में मधुरता, सादगी, सौजन्यता एवं वैराग्य की भावना कूट-कूटकर भरी थी। उनके जीवन का प्रथम दर्शन ही था कि धर्म का मार्ग सत्य का मार्ग है और सत्य की सदैव विजय होती है।

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