ग्रामीण जीवन और भारत’ इस विषय से संबंगिि अपने विचार व्यक्ि करिे ह ु ए भाषण ललखिए । in 200
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भारत को गांवों का देश कहा जाता है, क्योंकि देश की आबादी का 70 प्रतिशत जनसंख्या का भाग गांवों में बसता है। देश में लगभग सात लाख छोटे-बड़े गांव हैं। ग्रामीणों का मुख्य पेशा कृषि और उससे संबद्ध धंधे हैं। युगों से ये ग्रामीण अनपढ़, उपेक्षित और शोषित रहे हैं। इनके जीवन को लक्ष्य कर साहित्यकारों ने विविध प्रकार की रचनाएं की हैं।राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने ग्राम-जीवन को अत्यंत अह्लादकारी मानकर लिखा है, ‘अहा ग्राम जीवन भी कितना सुखदायी है, क्यों न किसी का मन चाहे।” उन्हें गांव स्वर्ग-सा लगा, किंतु उन्हें गांव की झोंपड़ियों में पीड़ा का संसार नहीं दिखा।
गांव की प्रमुख समस्याएं
गांव की प्रमुख समस्याएं हैं- शिक्षा, सहायक उद्योग, आवागमन के साधन, ऋण प्राप्ति, कुटीर उद्योग, जातिवाद, पीने का पानी, स्वास्थ्य रक्षा, सरकारी उपेक्षा आदि । यद्यपि इन समस्याओं के निराकरण के लिए सरकार ने पंचायती राज और सामुदायिक योजना को लागू किया है।
और सरकारी बजट का लगभग 70 प्रतिशत के ग्रामीण जीवन के विकास और खुशहाली के लिए खर्च कर रही है, फिर भी ग्रामीण जीवन में अपेक्षित बदलाव नहीं आया है। इस स्थिति के लिए अनेक तत्त्व जिम्मेदार हैं। उन पर अंकुश लगाकर उन्हें विकास में उपोदय बनाने की आवश्यकता है।
स्वास्थ्य रक्षा
स्वास्थ्य रक्षा की गांवों में कोई सुदृढ व्यवस्था नहीं है। कहीं-कहीं प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र खुले हैं लेकिन उनमें न तो दवा उपलब्ध है और न तो चिकित्सक। शहरी जीवन का अभ्यस्त चिकित्सक ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्र पर नहीं आता है। वह दौड़-धूप करके अपना स्थानान्तरण शहरी क्षेत्र में करा लेता है।
गांव के लोग झोला छाप (नकली) डॉक्टरों से ही अपनी बीमारी का उपचार कराने को बाध्य हैं। पीने के लिए स्वच्छ जल की व्यवस्था का घोर अभाव है। लोग कुओं और जलाशयों का दूषित जल पीने को बाध्य हैं। गली-कूचों और सड़कों की सफाई का कोई प्रबंध नहीं है। किसी संपन्न घर में ही शौचालय होगा।
सामान्यतः लोग सड़कों के किनारे मल त्याग करते हैं। महिलाएं भी खुले में शौच करती हैं। सार्वजनिक शौचालयों की एक योजना आई थी किंतु आज तक वह अधर में ही अटकी हुई है। सरकारी लेखों में तो मलेरिया का उन्मूलन हो गया है, लेकिन गांवों में मच्छरों की संख्या नित्य बढ़ रही है और प्रतिवर्ष हजारों की संख्या में ग्रामीण जन मलेरिया के शिकार हो रहे हैं।
अधिकांश गांवों में आज भी प्रसव कराने में परंपरागत गंवार दाई ही सुलभ हैं। अनेक बार प्रसव काल में उचित चिकित्सकीय सहायता अनुपलब्ध होने के कारण जच्चा-बच्चा का जीवन खतरे में पड़ जाता है। निराश्रितों के लिए वृद्धावस्था पेंशन अधिकांश पात्रों को नहीं मिल रही है। बस यही कहा जा सकता है कि सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों के स्वास्थ्य की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया है।
सरकार ने यदि इसी प्रकार गांवों की उपेक्षा जारी रखी, तो ग्रामीण जीवन सचमुच ‘मिट्टी की प्रतिमा’ अर्थात् जड़ बन जाएगा। गांव को निरक्षरता अस्वास्थ्य, जातिवाद, सरकारी भ्रष्टाचार आदि के मकड़जाल से मुक्त कराया जाना चाहिए। ऐसा होने पर ही भारत में लोकतंत्र पुष्पित एवं पल्लवित होगा।