Hindi, asked by harshit2484, 10 months ago

ग्रामीण जीवन और शहरी जीवन

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Answered by 60404
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Explanation:]

            हजारों वर्षो से बुद्धिजीवियों तथा पूॅजीपतियों द्वारा श्रमषोषण के अलग-अलग तरीके खोजे जाते रहे हैं। ऐसे तरीकों में सबसे प्रमुख तरीका आरक्षण रहा है। स्वतंत्रता के पूर्व आरक्षण सिर्फ सामाजिक व्यवस्था में था जो बाद में संवैधानिक व्यवस्था में हो गया। श्रमषोषण के उद्देष्य से ही सम्पत्ति का भी महत्व बढ़ाया गया। सम्पत्ति के साथ सुविधा तो थी ही किन्तु सम्मान भी जुड़ गया था। स्वतंत्रता के बाद पश्चिमी देशों की नकल करते हुये श्रमषोषण के लिए सस्ती उच्च तकनीक का एक नया तरीका खोज निकाला गया। वर्तमान समय में श्रमषोषण के माध्यम के रुप में सस्ती तकनीक का तरीका सबसे अधिक कारगर है।

श्रमषोषण के प्रयत्नों के परिणामस्वरुप अनेक विषमतायें बढ़ती गई। इनमें आर्थिक असमानता तथा शिक्षा और ज्ञान के बीच की असमानता तो शामिल है ही किन्तु शहरी और ग्रामीण सामाजिक, आर्थिक असमानता भी बहुत तेजी से बढती चली गई। शहरों की आबादी बहुत तेजी से बढ़ी तो गांव की आबादी लगभग वैसी ही है या बहुत मामुली बढ़ी है। गांव के लोग अपना सब कुछ छोड़ कर शहरों की ओर पलायन कर रहे है। यदि पुरे भारत की विकास दर को औसत छः मान लिया जाये तो गांवो का विकास एक प्रतिशत हो रहा है तो शहरों का विकास 11 % की दर से प्रतिवर्ष हो रहा हैं। विकास का यह फर्क और अधिक तेजी से शहरों की ओर पलायन को प्रेरित कर रहा है। यदि हम वर्तमान स्थिति की समीक्षा करें तो ग्रामीण उद्योग करीब-करीब समाप्त हो गये है। शिक्षा हो या स्वास्थ्य सभी सुविधायें शहरों से शुरु होती है और धीरे-धीरे इस तरह गांव तक पहुंचती है जिस तरह पुराने जमाने में बड़े लोग भोजन करने के बाद गरीबों के लिए जुठन छोड दिया करते थे। गांव के रोजगार मे श्रम का मूल्य शहरों की तुलना में बहुत कम होता है। यहाॅ तक कि सरकार द्वारा घोषित गरीबी रेखा में भी शहर और गांव के बीच भारी अंतर किया गया है। गांव के व्यक्ति की गरीबी रेखा का आंकलन 28 रुपये प्रतिदिन है तो शहर का 32 रुपये प्रतिदिन हैं।

यदि हम सामाजिक जीवन के अच्छे बुरे की समीक्षा करें तो दोनों में बहुत अधिक अंतर है । गांव के लोग सुविधाओं के मामले में शहरी लोगों की तुलना में कई गुना अधिक पिछडे हुये है तो नैतिकता के मामले में गांव के लोग शहर वालों की अपेक्षा कई गुना आगे है। गांव के लोग शराबी, अशिक्षित, गरीब होते हुये भी सच बोलने, मानवता का व्यवहार करने या ईमानदारी के मामले में शहरों की तुलना में बहुत आगे है। शहरों के लोग गांव मेें जाकर उन पर दया करके कुछ मदद भी करते है तो उससे कई गुना अधिक उन बेचारों का शोषण भी करते है। गांव में शहरों की अपेक्षा परिवार व्यवस्था बहुत अधिक मजबुत है, शहरों में तलाक के जितने मामले होते है गांव में उससे बहुत कम होते है। धूर्तता के मामले भी शहरों में अधिक माने जाते है।

शहरों की बढती आबादी एक विकराल समस्या का रुप लेती जा रही है। कई प्रकार के प्रयत्न हो रहे है किन्तु शहरों की आबादी बढती ही जा रही है। मर्ज बढता ही गया ज्यों- ज्यों दवा की। क्योंकि मुख्य समस्या षहरी आबादी का बढना है। बम्बई मे भारी वर्षा हुयी और बाढ आयी। गांव में उससे अधिक वर्षा होती हैं और कुछ नहीं होता। दिल्ली के गाजीपुर में कचरे का पहाड गिरा सबके सामने हैं कि जनहानि हुयी।शहरों में कचरा आज एक समस्या बनता जा रहा है तो गांव में समाधान। शहरों का गन्दा पानी भी एक समस्या है तो गांव का समाधान।शहरों के कल कारखाने हवा, पानी और जमीन तक को प्रदूषित करते है तो गांव के पेड पौधे उन्हें शुद्ध करते है। फिर भी शहर बढाये जा रहे है । शहरों में व्यक्ति शिक्षित हैं बुद्धिजीवी हैं परंतु वे समस्या के मूल कारणों को क्यो अनदेखा किये हुये यह अपने आप मे एक विचारणीय प्रश्न हैं जबकि गांव के लोग शहरों की अपेक्षा कम शिक्षित हैं मगर उनकी समझ में बात आ जाती हैं । शहर विचार-प्रचार का तो माध्यम हो सकता है विचार मंथन का नहीं। शहरों में आपको विचारक नहीं मिलेगे। मेरा खुद का व्यक्तिगत अनुभव हैं कि मैं दिल्ली में सर्वसुविधा सम्पन्न होते हुए भी नुकसान में इसलिए रहा कि शहरों के बडे बुद्धिजीवी, श्रमषोषण की पुरानी इच्छा में कोई सुधार करने को तैयार नहीं हैं और बिना सुधार किये समस्याओं का समाधान हो ही नहीं सकता। गांव से टैक्स वसूलकर शहरों पर खर्च होगा तो गांव के लोग शहरों की ओर जायेंगे ही। यह समस्या आर्थिक अधिक है सामाजिक कम और प्रशासनिक नगण्य है। इसका समाधान भी आर्थिक ही होगा। समाधान बहुत आसान है। सभी प्रकार के टैक्स समाप्त कर दिये जाये। सरकार स्वयं को सुरक्षा और न्याय तक सीमित कर ले और उस पर होने वाला सारा खर्च प्रत्येक व्यक्ति की सम्पूर्ण सम्पत्ति पर एक दो प्रतिशत कर लगाकर व्यवस्था कर ले। अन्य सभी कार्य ग्राम सभा से लेकर केन्द्र सभा के बीच बट जावे । दूसरे कर के रुप में सम्पूर्ण कृत्रिम उर्जा का मूल्य लगभग ढाई गुना कर दिया जाये तथा उससे प्राप्त पूरी राशि देश भर की ग्राम और वार्ड सभाओं को उनकी आबादी के हिसाब से बराबर-बराबर बांट दिया जाये। ग्राम सभाये आवश्यकतानुसार उपर की इकाईयो को दे सकती है। अनुमानित एक हजार की आबादी वाली ग्राम सभा को एक वर्ष मे ढाई करोड रूपया कृत्रिम उर्जा कर के रूप मे मिल सकेगा। इससे आवागमन महंगा हो जायेगा और आवागमन का महंगा होना ही ग्रामीण उद्योगों के विकास का बडा माध्यम बनेगा। गांवो का उत्पादित कच्चा माल शहरो की ओर जाता है और शहरो से वह उपभोक्ता वस्तु के रूप मे परिवर्तित होकर फिर उपभोग के लिये गांवो मे लौटता है।

Answered by subham21122007
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  हजारों वर्षो से बुद्धिजीवियों तथा पूॅजीपतियों द्वारा श्रमषोषण के अलग-अलग तरीके खोजे जाते रहे हैं। ऐसे तरीकों में सबसे प्रमुख तरीका आरक्षण रहा है। स्वतंत्रता के पूर्व आरक्षण सिर्फ सामाजिक व्यवस्था में था जो बाद में संवैधानिक व्यवस्था में हो गया। श्रमषोषण के उद्देष्य से ही सम्पत्ति का भी महत्व बढ़ाया गया। सम्पत्ति के साथ सुविधा तो थी ही किन्तु सम्मान भी जुड़ गया था। स्वतंत्रता के बाद पश्चिमी देशों की नकल करते हुये श्रमषोषण के लिए सस्ती उच्च तकनीक का एक नया तरीका खोज निकाला गया। वर्तमान समय में श्रमषोषण के माध्यम के रुप में सस्ती तकनीक का तरीका सबसे अधिक कारगर है।

श्रमषोषण के प्रयत्नों के परिणामस्वरुप अनेक विषमतायें बढ़ती गई। इनमें आर्थिक असमानता तथा शिक्षा और ज्ञान के बीच की असमानता तो शामिल है ही किन्तु शहरी और ग्रामीण सामाजिक, आर्थिक असमानता भी बहुत तेजी से बढती चली गई। शहरों की आबादी बहुत तेजी से बढ़ी तो गांव की आबादी लगभग वैसी ही है या बहुत मामुली बढ़ी है। गांव के लोग अपना सब कुछ छोड़ कर शहरों की ओर पलायन कर रहे है। यदि पुरे भारत की विकास दर को औसत छः मान लिया जाये तो गांवो का विकास एक प्रतिशत हो रहा है तो शहरों का विकास 11 % की दर से प्रतिवर्ष हो रहा हैं। विकास का यह फर्क और अधिक तेजी से शहरों की ओर पलायन को प्रेरित कर रहा है। यदि हम वर्तमान स्थिति की समीक्षा करें तो ग्रामीण उद्योग करीब-करीब समाप्त हो गये है। शिक्षा हो या स्वास्थ्य सभी सुविधायें शहरों से शुरु होती है और धीरे-धीरे इस तरह गांव तक पहुंचती है जिस तरह पुराने जमाने में बड़े लोग भोजन करने के बाद गरीबों के लिए जुठन छोड दिया करते थे। गांव के रोजगार मे श्रम का मूल्य शहरों की तुलना में बहुत कम होता है। यहाॅ तक कि सरकार द्वारा घोषित गरीबी रेखा में भी शहर और गांव के बीच भारी अंतर किया गया है। गांव के व्यक्ति की गरीबी रेखा का आंकलन 28 रुपये प्रतिदिन है तो शहर का 32 रुपये प्रतिदिन हैं।

यदि हम सामाजिक जीवन के अच्छे बुरे की समीक्षा करें तो दोनों में बहुत अधिक अंतर है । गांव के लोग सुविधाओं के मामले में शहरी लोगों की तुलना में कई गुना अधिक पिछडे हुये है तो नैतिकता के मामले में गांव के लोग शहर वालों की अपेक्षा कई गुना आगे है। गांव के लोग शराबी, अशिक्षित, गरीब होते हुये भी सच बोलने, मानवता का व्यवहार करने या ईमानदारी के मामले में शहरों की तुलना में बहुत आगे है। शहरों के लोग गांव मेें जाकर उन पर दया करके कुछ मदद भी करते है तो उससे कई गुना अधिक उन बेचारों का शोषण भी करते है। गांव में शहरों की अपेक्षा परिवार व्यवस्था बहुत अधिक मजबुत है, शहरों में तलाक के जितने मामले होते है गांव में उससे बहुत कम होते है। धूर्तता के मामले भी शहरों में अधिक माने जाते है।

शहरों की बढती आबादी एक विकराल समस्या का रुप लेती जा रही है। कई प्रकार के प्रयत्न हो रहे है किन्तु शहरों की आबादी बढती ही जा रही है। मर्ज बढता ही गया ज्यों- ज्यों दवा की। क्योंकि मुख्य समस्या षहरी आबादी का बढना है। बम्बई मे भारी वर्षा हुयी और बाढ आयी। गांव में उससे अधिक वर्षा होती हैं और कुछ नहीं होता। दिल्ली के गाजीपुर में कचरे का पहाड गिरा सबके सामने हैं कि जनहानि हुयी।शहरों में कचरा आज एक समस्या बनता जा रहा है तो गांव में समाधान। शहरों का गन्दा पानी भी एक समस्या है तो गांव का समाधान।शहरों के कल कारखाने हवा, पानी और जमीन तक को प्रदूषित करते है तो गांव के पेड पौधे उन्हें शुद्ध करते है। फिर भी शहर बढाये जा रहे है । शहरों में व्यक्ति शिक्षित हैं बुद्धिजीवी हैं परंतु वे समस्या के मूल कारणों को क्यो अनदेखा किये हुये यह अपने आप मे एक विचारणीय प्रश्न हैं जबकि गांव के लोग शहरों की अपेक्षा कम शिक्षित हैं मगर उनकी समझ में बात आ जाती हैं । शहर विचार-प्रचार का तो माध्यम हो सकता है विचार मंथन का नहीं। शहरों में आपको विचारक नहीं मिलेगे। मेरा खुद का व्यक्तिगत अनुभव हैं कि मैं दिल्ली में सर्वसुविधा सम्पन्न होते हुए भी नुकसान में इसलिए रहा कि शहरों के बडे बुद्धिजीवी, श्रमषोषण की पुरानी इच्छा में कोई सुधार करने को तैयार नहीं हैं और बिना सुधार किये समस्याओं का समाधान हो ही नहीं सकता। गांव से टैक्स वसूलकर शहरों पर खर्च होगा तो गांव के लोग शहरों की ओर जायेंगे ही। यह समस्या आर्थिक अधिक है सामाजिक कम और प्रशासनिक नगण्य है। इसका समाधान भी आर्थिक ही होगा। समाधान बहुत आसान है। सभी प्रकार के टैक्स समाप्त कर दिये जाये। सरकार स्वयं को सुरक्षा और न्याय तक सीमित कर ले और उस पर होने वाला सारा खर्च प्रत्येक व्यक्ति की सम्पूर्ण सम्पत्ति पर एक दो प्रतिशत कर लगाकर व्यवस्था कर ले। अन्य सभी कार्य ग्राम सभा से लेकर केन्द्र सभा के बीच बट जावे । दूसरे कर के रुप में सम्पूर्ण कृत्रिम उर्जा का मूल्य लगभग ढाई गुना कर दिया जाये तथा उससे प्राप्त पूरी राशि देश भर की ग्राम और वार्ड सभाओं को उनकी आबादी के हिसाब से बराबर-बराबर बांट दिया जाये। ग्राम सभाये आवश्यकतानुसार उपर की इकाईयो को दे सकती है। अनुमानित एक हजार की आबादी वाली ग्राम सभा को एक वर्ष मे ढाई करोड रूपया कृत्रिम उर्जा कर के रूप मे मिल सकेगा। इससे आवागमन महंगा हो जायेगा और आवागमन का महंगा होना ही ग्रामीण उद्योगों के विकास का बडा माध्यम बनेगा। गांवो का उत्पादित कच्चा माल शहरो की ओर जाता है और शहरो से वह उपभोक्ता वस्तु के रूप मे परिवर्तित होकर फिर उपभोग के लिये गांवो मे लौटता है।

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