गुरुदाक्षिना की परंपरा पर लेख
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जैसे सूर्य बिना कहे सबको प्राण ऊर्जा देता है, मेघ जल बरसाता है, हवा भी बिना किसी भेदभाव व लालच के ठंडक पहुँचाकर सभी को जीवित रखती है और फूल भी अपनी महक में कोई कसर नहीं रखता, वैसे ही गुरुजन भी स्वयं ही शिष्यों की भलाई में लगे रहते हैं। उनका उद्देश्य शिष्य से गुरुदक्षिणा लेना नहीं, अपितु शिष्य का सूर्य की भाँति दैदीप्यमान होना है जो गुरु के सिर को गर्व से ऊँचा कर दे।
प्राचीनकाल के एक गुरु अपने आश्रम को लेकर बहुत चिंतित थे। गुरु वृद्ध हो चले थे और अब शेष जीवन हिमालय में ही बिताना चाहते थे, लेकिन उन्हें यह चिंता सताए जा रही थी कि मेरी जगह कौन योग्य उत्तराधिकारी हो, जो आश्रम को ठीक तरह से संचालित कर सके।
उस आश्रम में दो योग्य शिष्य थे और दोनों ही गुरु को प्रिय थे। दोनों को गुरु ने बुलाया और कहा- शिष्यों मैं तीर्थ पर जा रहा हूँ और गुरुदक्षिणा के रूप में तुमसे बस इतना ही माँगता हूँ कि यह दो मुट्ठी गेहूँ है। एक-एक मुट्ठी तुम दोनों अपने पास संभालकर रखो और जब मैं आऊँ तो मुझे यह दो मुठ्ठी गेहूँ वापस करना है। जो शिष्य मुझे अपने गेहूँ सुरक्षित वापस कर देगा, मैं उसे ही इस गुरुकुल का गुरु नियुक्त करूँगा। दोनों शिष्यों ने गुरु की आज्ञा को शिरोधार्य रखा और गुरु को विदा किया।
जैसे सूर्य बिना कहे सबको प्राण ऊर्जा देता है, मेघ जल बरसाता है, हवा भी बिना किसी भेदभाव व लालच के ठंडक पहुँचाकर सभी को जीवित रखती है और फूल भी अपनी महक में कोई कसर नहीं रखता, वैसे ही गुरुजन भी स्वयं ही शिष्यों की भलाई में लगे रहते हैं।
एक शिष्य गुरु को भगवान मानता था। उसने तो गुरु के दिए हुए एक मुट्ठी गेहूँ को पुट्टल बाँधकर एक आलिए में सुरक्षित रख दिए और रोज उसकी पूजा करने लगा। दूसरा शिष्य जो गुरु को ज्ञान का देवता मानता था उसने उन एक मुट्ठी गेहूँ को ले जाकर गुरुकुल के पीछे खेत में बो दिए।
कुछ महीनों बाद जब गुरु आए तो उन्होंने जो शिष्य गुरु को भगवान मानता था उससे अपने एक मुट्ठी गेहूँ माँगे। उस शिष्य ने गुरु को ले जाकर आलिए में रखी गेहूँ की पुट्टल बताई जिसकी वह रोज पूजा करता था। गुरु ने देखा कि उस पुट्टल के गेहूँ सड़ चुके हैं और अब वे किसी काम के नहीं रहे। तब गुरु ने उस शिष्य को जो गुरु को ज्ञान का देवता मानता था उससे अपने गेहूँ दिखाने के लिए कहा। उसने गुरु को आश्रम के पीछे ले जाकर कहा- गुरुदेव यह लहलहाती जो फसल देख रहे हैं यही आपके एक मुट्ठी गेहूँ हैं और मुझे क्षमा करें कि जो गेहूँ आप दे गए थे वही गेहूँ मैं दे नहीं सकता।
लहलहाती फसल को देखकर गुरु का चित्त प्रसन्न हो गया और उन्होंने कहा जो शिष्य गुरु के ज्ञान को फैलाता है, बाँटता है वही श्रेष्ठ उत्तराधिकारी होने का पात्र है। मूलतः गुरु के प्रति सच्ची दक्षिणा यही है। सामान्य अर्थ में गुरुदक्षिणा का अर्थ पारितोषिक के रूप में लिया जाता है, किंतु गुरुदक्षिणा का वास्तविक अर्थ कहीं ज्यादा व्यापक है। महज पारितोषिक नहीं।
गुरुदक्षिणा का अर्थ है कि गुरु से प्राप्त की गई शिक्षा एवं ज्ञान का प्रचार-प्रसार व उसका सही उपयोग कर जनकल्याण में लगाएँ। मूलतः गुरुदक्षिणा का अर्थ शिष्य की परीक्षा के संदर्भ में भी लिया जाता है। गुरुदक्षिणा गुरु के प्रति सम्मान व समर्पण भाव है। गुरु के प्रति सही दक्षिणा यही है कि गुरु अब चाहता है कि तुम खुद गुरु बनो।
गुरुदक्षिणा उस वक्त दी जाती है या गुरु उस वक्त दक्षिणा लेता है जब शिष्य में सम्पूर्णता आ जाती है। अर्थात जब शिष्य गुरु होने लायक स्थिति में होता है। गुरु के पास का समग्र ज्ञान जब शिष्य ग्रहण कर लेता है और जब गुरु के पास कुछ भी देने के लिए शेष नहीं रह जाता तब गुरुदक्षिणा सार्थक होती है।
द्रोणाचार्य को युद्ध भूमि में जब अर्जुन ने अपने सामने प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखा तो उसने युद्ध लड़ने से इंकार कर दिया। यह अर्जुन के शिष्य के रूप में द्रोणाचार्य के प्रति प्रेम व सम्मान का भाव था। इसी प्रकार जब एकलव्य से गुरु द्रोणाचार्य ने प्रश्न किया कि तुम्हारा गुरु कौन है, तब उसने कहा- गुरुदेव आप ही मेरे गुरु हैं और आपकी ही कृपा से आपकी मूर्ति को गुरु मानकर मैंने धनुर्विद्या सीखी है। तब द्रोणाचार्य ने कहा- पुत्र तब तो तुमको मुझे दक्षिणा देना होगी।
एकलव्य ने कहा- गुरुदेव आप आदेश तो करें मैं दक्षिणा देने के लिए तैयार हूँ। तब गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य से दाहिने हाथ का अँगूठा माँगा। एकलव्य ने सहर्ष अपना अँगूठा काटकर गुरु के चरणों में रख दिया। इससे एकलव्य का अहित नहीं हुआ, बल्कि एकलव्य की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई और वह एक इतिहास पुरुष बन गया। गुरु का प्रेम दिखने में कठोर होता है, किंतु इससे शिष्य का जरा भी अहित नहीं होता।
गुरु का पूरा जीवन अपने शिष्य को योग्य अधिकारी बनाने में लगता है। गुरु तो अपना कर्तव्य पूरा कर देता है, मगर दुसरा कर्तव्य शिष्य का है वह है- गुरुदक्षिणा। हिंदू धर्म में गुरुदक्षिणा का महत्व बहुत अधिक माना गया है। गुरुकुल में शिक्षा ग्रहण करने के बाद जब अंत में शिष्य अपने घर जाता है तब उसे गुरुदक्षिणा देनी होती है। गुरुदक्षिणा का अर्थ कोई धन-दौलत से नहीं है। यह गुरु के ऊपर निर्भर है कि वह अपने शिष्य से किस प्रकार की गुरुदक्षिणा की माँग करे।
प्राचीनकाल के एक गुरु अपने आश्रम को लेकर बहुत चिंतित थे। गुरु वृद्ध हो चले थे और अब शेष जीवन हिमालय में ही बिताना चाहते थे, लेकिन उन्हें यह चिंता सताए जा रही थी कि मेरी जगह कौन योग्य उत्तराधिकारी हो, जो आश्रम को ठीक तरह से संचालित कर सके।
उस आश्रम में दो योग्य शिष्य थे और दोनों ही गुरु को प्रिय थे। दोनों को गुरु ने बुलाया और कहा- शिष्यों मैं तीर्थ पर जा रहा हूँ और गुरुदक्षिणा के रूप में तुमसे बस इतना ही माँगता हूँ कि यह दो मुट्ठी गेहूँ है। एक-एक मुट्ठी तुम दोनों अपने पास संभालकर रखो और जब मैं आऊँ तो मुझे यह दो मुठ्ठी गेहूँ वापस करना है। जो शिष्य मुझे अपने गेहूँ सुरक्षित वापस कर देगा, मैं उसे ही इस गुरुकुल का गुरु नियुक्त करूँगा। दोनों शिष्यों ने गुरु की आज्ञा को शिरोधार्य रखा और गुरु को विदा किया।
जैसे सूर्य बिना कहे सबको प्राण ऊर्जा देता है, मेघ जल बरसाता है, हवा भी बिना किसी भेदभाव व लालच के ठंडक पहुँचाकर सभी को जीवित रखती है और फूल भी अपनी महक में कोई कसर नहीं रखता, वैसे ही गुरुजन भी स्वयं ही शिष्यों की भलाई में लगे रहते हैं।
एक शिष्य गुरु को भगवान मानता था। उसने तो गुरु के दिए हुए एक मुट्ठी गेहूँ को पुट्टल बाँधकर एक आलिए में सुरक्षित रख दिए और रोज उसकी पूजा करने लगा। दूसरा शिष्य जो गुरु को ज्ञान का देवता मानता था उसने उन एक मुट्ठी गेहूँ को ले जाकर गुरुकुल के पीछे खेत में बो दिए।
कुछ महीनों बाद जब गुरु आए तो उन्होंने जो शिष्य गुरु को भगवान मानता था उससे अपने एक मुट्ठी गेहूँ माँगे। उस शिष्य ने गुरु को ले जाकर आलिए में रखी गेहूँ की पुट्टल बताई जिसकी वह रोज पूजा करता था। गुरु ने देखा कि उस पुट्टल के गेहूँ सड़ चुके हैं और अब वे किसी काम के नहीं रहे। तब गुरु ने उस शिष्य को जो गुरु को ज्ञान का देवता मानता था उससे अपने गेहूँ दिखाने के लिए कहा। उसने गुरु को आश्रम के पीछे ले जाकर कहा- गुरुदेव यह लहलहाती जो फसल देख रहे हैं यही आपके एक मुट्ठी गेहूँ हैं और मुझे क्षमा करें कि जो गेहूँ आप दे गए थे वही गेहूँ मैं दे नहीं सकता।
लहलहाती फसल को देखकर गुरु का चित्त प्रसन्न हो गया और उन्होंने कहा जो शिष्य गुरु के ज्ञान को फैलाता है, बाँटता है वही श्रेष्ठ उत्तराधिकारी होने का पात्र है। मूलतः गुरु के प्रति सच्ची दक्षिणा यही है। सामान्य अर्थ में गुरुदक्षिणा का अर्थ पारितोषिक के रूप में लिया जाता है, किंतु गुरुदक्षिणा का वास्तविक अर्थ कहीं ज्यादा व्यापक है। महज पारितोषिक नहीं।
गुरुदक्षिणा का अर्थ है कि गुरु से प्राप्त की गई शिक्षा एवं ज्ञान का प्रचार-प्रसार व उसका सही उपयोग कर जनकल्याण में लगाएँ। मूलतः गुरुदक्षिणा का अर्थ शिष्य की परीक्षा के संदर्भ में भी लिया जाता है। गुरुदक्षिणा गुरु के प्रति सम्मान व समर्पण भाव है। गुरु के प्रति सही दक्षिणा यही है कि गुरु अब चाहता है कि तुम खुद गुरु बनो।
गुरुदक्षिणा उस वक्त दी जाती है या गुरु उस वक्त दक्षिणा लेता है जब शिष्य में सम्पूर्णता आ जाती है। अर्थात जब शिष्य गुरु होने लायक स्थिति में होता है। गुरु के पास का समग्र ज्ञान जब शिष्य ग्रहण कर लेता है और जब गुरु के पास कुछ भी देने के लिए शेष नहीं रह जाता तब गुरुदक्षिणा सार्थक होती है।
द्रोणाचार्य को युद्ध भूमि में जब अर्जुन ने अपने सामने प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखा तो उसने युद्ध लड़ने से इंकार कर दिया। यह अर्जुन के शिष्य के रूप में द्रोणाचार्य के प्रति प्रेम व सम्मान का भाव था। इसी प्रकार जब एकलव्य से गुरु द्रोणाचार्य ने प्रश्न किया कि तुम्हारा गुरु कौन है, तब उसने कहा- गुरुदेव आप ही मेरे गुरु हैं और आपकी ही कृपा से आपकी मूर्ति को गुरु मानकर मैंने धनुर्विद्या सीखी है। तब द्रोणाचार्य ने कहा- पुत्र तब तो तुमको मुझे दक्षिणा देना होगी।
एकलव्य ने कहा- गुरुदेव आप आदेश तो करें मैं दक्षिणा देने के लिए तैयार हूँ। तब गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य से दाहिने हाथ का अँगूठा माँगा। एकलव्य ने सहर्ष अपना अँगूठा काटकर गुरु के चरणों में रख दिया। इससे एकलव्य का अहित नहीं हुआ, बल्कि एकलव्य की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई और वह एक इतिहास पुरुष बन गया। गुरु का प्रेम दिखने में कठोर होता है, किंतु इससे शिष्य का जरा भी अहित नहीं होता।
गुरु का पूरा जीवन अपने शिष्य को योग्य अधिकारी बनाने में लगता है। गुरु तो अपना कर्तव्य पूरा कर देता है, मगर दुसरा कर्तव्य शिष्य का है वह है- गुरुदक्षिणा। हिंदू धर्म में गुरुदक्षिणा का महत्व बहुत अधिक माना गया है। गुरुकुल में शिक्षा ग्रहण करने के बाद जब अंत में शिष्य अपने घर जाता है तब उसे गुरुदक्षिणा देनी होती है। गुरुदक्षिणा का अर्थ कोई धन-दौलत से नहीं है। यह गुरु के ऊपर निर्भर है कि वह अपने शिष्य से किस प्रकार की गुरुदक्षिणा की माँग करे।
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