गुरूदेव पूछते है कि भीष्म को अवतार क्यों नही माना गया। दिनकर जी महामना और उदार कवि थे। उनसे
क्षमा मिल जाने की आशा से इतना तो कहा ही जा सकता है कि भीष्म अपने बम भोला नाथ गुरू परशुराम से
अधिक संतुलित, विचारवान और ज्ञानी थे। पुराने रिकार्ड कुछ ऐसा सोचने को मजबूर करते हैं। फिर भी परशुराम
को दस अवतारों में गिन लिया गया और बेचारे भीष्मम को ऐसा कोई गौरव नहीं दिया गया। क्या कारण हो सकता
एकांत में भीष्म सरकंडों की चटाई पर लेटे-लेटे क्या अपने बारे में सोचते नहीं होंगे? मेरा मन कहता है कि
जरूर सोचते होंगे। भीष्म ने कभी बचपन में पिता की गलत आकांक्षाओं की तृप्ति के लिए भीषण प्रतिज्ञा की
थी-वह आजीवन विवाह नहीं करेंगे। अर्थात् इस संभावना को ही नष्ट कर देंगे कि उनके पुत्र होगा और वह या
उसकी संतान कुरूवंश के सिंहासन पर दावा करेगी। प्रतिज्ञा सचमुच भीषण थी। कहते है किइस भीषण प्रतिज्ञा के
कारण ही वह देवव्रत से "भीष्म' बने। यद्यपि चित्रवीय और विचित्रवीर्य तक तो कौरव-रक्त रह गया था तथापि
बाद में वास्तविक कौरव-रक्त समाप्त हो गया, केवल कानूनी कौरव वंश चलता रहा । जीवन के अंतिम दिनों में
इतिहास-मर्मज्ञ भीष्म को यह बात क्या खली नहीं होगी?
भीष्म को अगर यह बात नहीं खली तो और भी बुरा हुआ। परशुराम चाहे ज्ञान-विज्ञान की जानकारी का
बोझ ढोने में भीष्म के समकक्ष न रहे हों, पर सीधी बात को सीधे समझने में निश्चय ही वह उनसे बहुत आगे थे।
वह भी ब्रह्मचारी थे-बालब्रह्मचारी। पर भीष्म ब अपने निवीर्य भाइयों के लिए कन्याहरण कर लाए और एक कन्या
को अविवाहित रहने को बाध्य किया, तब उन्होंने भीष्म के इस अशोभन कार्य को क्षमा नहीं किया। समझाने-बुझाने
तक ही नहीं रूके, लड़ाई भी की। पर भीष्म अपनी प्रतिज्ञा के शब्दों से चिपटे ही रहे। वह भविष्य नहीं देख सके,
वह लोक-कल्याण को नही समझ सके। फलतः अपहृता अपमानित कन्या चल मरी।
नारद जी भी ब्रह्मचारी थे। उन्होंने सत्य के बारे में शब्दों पर चिपटने को नहीं, सबके हित या कल्याण को
अधिक जरूरी समझा था-सत्यस्य वचनम् श्रेयः सत्यादपि हितं वदेत् ।
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