गीता के अनुसार योग है-
(a) त्याग
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Explanation:
योग: कर्मसु कौशलम्''। गीता 2/50
इस कथन का अभिप्राय है फलासक्ति का त्याग करके कर्म करना ही कर्मकौशल है। कर्म करते हुए यदि कर्त्ता कर्म में आसक्त हो गया तो वह कर्मकौशल नहीं कहलाता है। कर्त्ता की कुशलता तो यह है कि कर्म करके उसको वहीं छोड़ दिया जाये
वही ज्ञान वास्तविक ज्ञान होता है जो ज्ञान मुक्ति के मार्ग की ओर अग्रसरित कराता है। अत: गीता में भी मुक्ति प्रदायक ज्ञान है। इस बात की पुष्टि स्वयं व्यास जी ने महाभारत के शान्तिपर्व में प्रकट किया है। ‘‘विद्या योगेन ऱक्षति’’ अर्थात् ज्ञान की रक्षा योग से होती है। श्रीमद्भगवद् गीता को यदि योग का मुख्य ग्रन्थ कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीें होगी। योग के आदि प्रवक्ता स्वयं श्रीकृष्ण भगवान् है, इसलिए उन्हें योगेश्वर भी कहा गया है। आदि काल में भगवान् गीता का उपदेश सूर्य भगवान् को दिया, सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा। इस प्रकार योग को ऋषियों ने जाना।
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवाहनहमव्ययम्।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेSब्रबीत् ।। गीता 4/1
परन्तु इसके बाद यह योग बहुत काल से इस पृथिवि लोक में लुप्त प्राय हो गया। अत: तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है, इसिलिए वही यह पुरातन योग आज मैंने तुझको कहा है, क्योंकि यह बड़ा ही उत्तम रहस्य है अर्थात् गुप्त रखने योग्य विषय है। श्रीमद्भगवद् गीता के प्रत्येक अध्याय को योग की संज्ञा दी गयी है। इस प्रकार अठारह अध्यायों को क्रमश: निम्न योगों से अभिहित किया गया है, जो इस प्रकार है- 1. अर्जुनविषाद योग, 2. सांख्य योग, 3. कर्मयोग, 4. ब्रह्मयोग, (ज्ञान कर्म सन्यास योग), 5. कर्म सन्यास योग, 6. आत्मसंयम योग, 7. ज्ञानविज्ञान योग, 8. अक्षरब्रह्म योग, 9. राजविद्याराजग्रह्य योग, 10. विभूति योग, 11. विश्वरूपदर्शन योग, 12. भक्तियोग, 13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग, 14. गुणत्रय विभाग योग. 15. पुरुषोत्तम योग, 16. दैवासुरसम्पद् विभाग योग, 17. श्रद्धात्रय विभाग योग एवं 18. मोक्षसन्यास योग।
यदि इन सब का विश्लेषण किया जाए तो प्रत्येक छ: अध्यायों में एक नवीन उपदेश है।
पहले छ: अध्यायों में पाँच की साधना प्रणाली का वर्णन है। जिन्हें कर्मयोग के अन्तर्गत रखा गया है। अगले छ: अध्यायों में भगवान् ने अपने उपदेश का मूल अथवा गीता हृदय खोल कर रख दिया है तथा अपने शिष्य को दिव्यदृष्टि प्रदान की है। इसमें भक्ति योग है। अन्त के छ: अध्यायों में भगवान् श्रीकृष्ण ने कुछ विशिष्ट एवं गूढ़ सिद्धान्तों की मीमांसा की है, जिन्हें समझने के लिए योग को पूर्णत: व्यवहार में लाने के लिए अत्यन्त आवश्यक है। यही ज्ञान योग है।
गीता में योग के विभिन्न रूपों का वर्णन किया गया है, परन्तु गीता के अन्यान्य योगों में आपातत: योग के मुख्यत: तीन स्वरूप स्पष्ट दिखते हैं। इनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है- गीता के दूसरे अध्याय में योग के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा है कि
‘‘समत्त्वं योग उच्यते’’। गीता 2/48
अर्थात् जब साधक का चित्त सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धिवाला होता है, तब इस अवस्था में साधक का चित्त सुख-दु:ख, मान-अपमान, लाभ-हानि, जय-पराजय, शीत-उष्ण, तथा भूख-प्यास आदि द्वन्द्व में समान बना रहता है। इस अवस्था में साधक सभी पदार्थों में समान भाव रखता है। इस अवस्था के कारण उसका अज्ञान नष्ट हो जाता है, सभी दु:ख समाप्त हो जाते हैं। इसी समत्त्व भाव का नाम योग है।
गीता के दूसरे अध्याय में ही योग की एक अन्य परिभाषा देते हुए भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-
‘‘ योग: कर्मसु कौशलम्’’। गीता 2/50
इस कथन का अभिप्राय है फलासक्ति का त्याग करके कर्म करना ही कर्मकौशल है। कर्म करते हुए यदि कर्त्ता कर्म में आसक्त हो गया तो वह कर्मकौशल नहीं कहलाता है। कर्त्ता की कुशलता तो यह है कि कर्म करके उसको वहीं छोड़ दिया जाये। हानि और लाभ, जय अथवा पराजय, कार्य-सिद्धि या असिद्धि के विषय में चिन्ता ही न की जाये। कर्म करते हुए यदि कर्त्ता उस कर्म का दास होकर रह गया तो वह कर्त्ता का अस्वातन्त्रय हुआ। कर्त्ता तो स्वतन्त्र हुआ करता है।