Hindi, asked by Yashi18781, 2 months ago

गांधी जी किसको पाप मानते थे​

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Answered by Tanisha1542
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Hey mate!

Here's your answer

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सर्दियां बीतने के बाद पिछले दिनों जब घर की सफाई कर रही थी, तब खूब सहेजी पर भुला दी गई चीजों में से अचानक एक छोटी सी वॉल हैंगिंग मिली, जिसे किसी मित्र ने मुझे उपहार स्वरूप दिया था। उस पर सात सामाजिक पाप शीर्षक से एक सूची छपी थी। नीचे लिखा था महात्मा गांधी द्वारा उद्धृत, यंग इंडिया 1925। मन बरबस इस विडंबना की ओर गया। गांधीजी को हमने भी सहेज कर रख तो लिया था, पर लगभग भुला ही दिया था। 7 सामाजिक पापों की यह सूची गांधीजी ने अपने किसी गोरे मित्र को भेजी थी। फिर उसे 22 अक्टूबर 1925 के यंग इंडिया में भी प्रकाशित किया था। हमारे मित्र ने उसकी कई प्रतियां बनवाईं, उनकी इच्छा थी कि पाठक यदि पहले से इनसे परिचित न हों तो पढ़ लें। गांधीजी की टिप्पणी थी, स्वाभाविक है मित्र चाहते होंगे कि पढ़ने वाले इन बातों पर बुद्धि से नहीं, दिल से सोचें और इन से बचने की कोशिश करें। जब गांधीजी ने इन्हें अपने पाठकों के लिए प्रकाशित किया होगा, तब उनकी भी यही इच्छा रही होगी। वे भी इन 7 सामाजिक पापों से मुक्त होने के लिए लोगों को प्रेरित करना चाहते होंगे। उन 7 सामाजिक पापों की सूची इस प्रकार है- 1. सिद्धांत के बिना राजनीति, 2. कर्म के बिना धन, 3. आत्मा के बिना सुख, 4. चरित्र के बिना धन, 5. नैतिकता के बिना व्यापार, 6. मानवीयता के बिना विज्ञान, 7. त्याग के बिना पूजा। गांधीजी के अनुसार नैतिकता, अर्थशास्त्र, राजनीति और धर्म अलग-अलग इकाइयां हैं, पर सबका उद्देश्य एक ही है- सर्वोदय। ये सब यदि अहिंसा और सत्य की कसौटी पर खरे उतरते हैं, तभी अपनाने योग्य हैं। राजनीति यदि लक्ष्यहीन है, निश्चित आदर्शों पर नहीं टिकी, तो वह पवित्र नहीं। राजनीति से मिली शक्ति का उद्देश्य है- जनता को हर क्षेत्र में बेहतर बनाना। तटस्थता, सत्य की खोज, वस्तुवादिता और नि:स्वार्थ भाव एक राजनेता के आदर्श होने चाहिए। वॉलेंटरी पॉवर्टी यानी स्वेच्छा से गरीबी अपनाना और डी-पॉजेशन यानी निजी वस्तुओं का त्याग, राजनेता के लिए अनिवार्य कर्म है। धन बिना कर्म के मंजूर नहीं होना चाहिए, अनुचित साधनों से बिना परिश्रम से कमाया गया धन अस्तेय नहीं, चुराया हुआ धन है। अपने लिए जितना जरूरी हो, उतना रखकर बाकी जनता की अमानत समझकर न्यासी भाव से उसे कल्याण कामों में लगाना धनी व्यक्ति का कर्त्तव्य है। आत्मा के अभाव में सभी प्रकार के सुख सिर्फ भोग और वासना मात्र हैं। आत्मा से उनका अभिप्राय उस आंतरिक आवाज से है जो आत्म अनुशासन से सुनाई पड़ती है। यही गलत और सही का विवेक देती है। दूसरों को दुख देकर पाया गया सुख पाप है, अस्थायी है। यदि इस सुख को स्थायी बनाना है तो पहले मूलभूत सुखों से वंचित लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति करो। मनुष्य का लक्ष्य पवित्र होते हुए भी ज्ञान के बिना गलत रास्तों पर चलने का खतरा रहता है। चरित्र पर कलंक लग जाता है। सुंदर चरित्र या व्यक्तित्व के बिना ज्ञानी भी कभी-कभी पापी की कोटि में आ जाता है। राम के भक्त गांधीजी, राम को प्रत्येक नागरिक में देखना चाहते थे। व्यापार में अक्सर नैतिकता कुरबान हो जाती है, व्यापारी निजी और पेशे की नैतिकता को अलग-अलग तत्व मानते हैं। जरूरत से ज्यादा नफा लेने वाला व्यक्ति यदि अपनी दुकान पर ग्राहक का छूट गया सामान लौटा देता है तो भी वह नीतिवान नहीं माना जाएगा। जमाखोर किसी डाकू से कम नहीं होते। पूजा त्याग के अभाव में कर्मकांड मात्र रह जाती है। जीवन में धर्म का महत्व गांधीजी ने हर क्षेत्र में माना। परंतु धर्म भी आत्मविकास का साधन है। छोटे-छोटे स्वार्थों और आसक्तियों का त्याग विकास को पूर्णता की ओर ले जाता है। दूसरे धर्मों के प्रति आदर और सहनशीलता का भाव अहिंसा और सत्य का पालन है। दूसरे के धर्म में दखल देना, दूसरे धर्मावलंबियों को चिढ़ाने और लड़ने के मौके ढूंढना- पूजा की पवित्रता पर प्रश्न चिन्ह लगाते हैं।

Answered by ardhyaSingh
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Answer:

हिंसा

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hope it will help

have a nice day

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