गांधीजी ने दलितों का उत्थान करने के लिए क्या उपाय किए
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किंतु जिस बात की आशंका थी वही होकर रही। ब्रिटिश मंत्री रैमजे मैकडानल्ड ने अपना जो सांप्रदायिक निर्णय दिया, उसमें उन्होंने दलित वर्गों के लिए पृथक् निर्वाचन को ही मान्यता दी। 13 सितंबर 1932 को गांधी जी ने उक्त निर्णय के विरोध में आमरण अनशन का निश्चय घोषित कर दिया।
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महात्मा गाँधी ने दलितों के लिए क्या किया ?
महात्मा गाँधी की आत्मकथा पढ़नेवाले भलीभांति जानते है कि वे बचपन से ही अस्पृश्यता को नहीं मानते थे. उनका मन इन्सान-इन्सान के बीच इतना भेद हो सकता है कि एक को स्पर्श करने से दूसरा भ्रष्ट हो जाता है यह स्वीकार करने को तैयार ही नहीं था. इसलिए मातृभक्त होने के बावजूद वे उकाभाई भंगी को न छूने के अपनी माँ के आदेश का पालन वे नहीं कर पाए थे. आत्मकथा में दक्षिण अफ्रीका में बनी एक प्रसिद्ध घटना का वर्णन है कि कस्तूरबा ने जब एक अस्पृश्य क्लार्क का पॉट साफ करने से इन्कार किया तो गांधीजी उन्हें धमकाकर घर से निकाल देने पर आमादा हो गये थे. पश्चिम में इस घटना का अर्थघटन ऐसा किया जाता है कि गांधीजी अपनी पत्नी के प्रति अन्याय करनेवाले पुरुष थे. लेकिन उनके इस क्रोध के पीछे दलितों के प्रति प्रेम छिपा था यह याद रखना चाहिए.
भारत आकर महात्मा गांधी ने अहमदाबाद के कोचरब में आश्रम शुरू किया तब की बात है. समाज में छुआछुत का बड़ा जोर था. ठक्करबापाने एक बुनकर परिवार को गाँधीजी के आश्रम में रहने के लिए भेजा. गांधीजी ने दुदाभाई नाम के उस बुनकर को सपरिवार आश्रममे रख लिया. अहमदाबाद के सारे वैष्णव इतना गुस्सा हो गए कि आश्रम को आर्थिक मदद मिलना बंद हो गया. गांधीजी ने कहा कि आश्रम नहीं चलेगा तो हम हरिजनवास में जाकर रहेंगे लेकिन दुदाभाई परिवार को आंच नहीं आने देंगे. दूसरी ओर आश्रम के निवासियों को भी दुदाभाई परिवार का रहना खटक रहा था. गांधीजी जिन्हें 'आश्रम के प्राण' कहा करते थे उस मगनलाल गाँधी कि पत्नी संतोकबहन दुदाभाई परिवार के साथ रहना-खाना सह नहीं सकी. इस पर गांधीजी ने अपने परम साथी मगनभाई को आश्रम छोड़ने कि सलाह दी. मगनभाई बुनाई सीखने मद्रास चले गए और छ: महीने तक वहीं रहे. बाद में जब उनका परिवार दुदाभाई के साथ आश्रममें रहने के लिए तैयार हुआ तब गांधीजी ने उनको आश्रम में वापस लिया. इस मामले में कस्तूरबा को भी भारी आंतरिक संघर्ष से गुजरना पडा था. आखिर पति के पुन्यकर्मो में सहभागी होने के अपने कर्तव्य को मानकर वे दुदाभाई परिवारका आश्रममें रहना स्वीकार कर पाई.
अस्पृश्यता को लेकर गांधीजी पर कई बार जानलेवा हमले हुए थे. जगन्नाथपुरी के मंदिर में प्रवेश करने के समय उनकी गाडी पर आक्रमण हुआ था. पूना में गांधीजी की गाडी पर बम फेंका गया था, मुश्किल से जान बची थी.
महात्मा गांधी ने अस्पृश्यतानिवारण के लिए देशभर में यात्रा की थी. जब दुसरे उपवास के कारन महात्मा गाँधी को जेल से जल्दी छोड़ा गया तब उन्होंने जेलकी बाकी सजा का पूरा साल कोई राजकीय प्रवृत्ति न करते हुए हरिजनयात्रा में गुजारा था. १९३४ में उन्होंने हरिजन सेवक संघ की स्थापना की थी जो आज तक हरिजनसेवा में रत है. इसी समय गांधीजी ने अपने पत्रों के नाम भी 'हरिजन', 'हरिजनबंधु' और 'हरिजनसेवक' ऐसे दिये थे. जीवन के अंत तक अनेक कार्यों के बीच गाँधी हरिजनों के लिए फंड एकत्रित करना नहीं भूलते थे. 'मेरा जीवन ही मेरा संदेश' कहनेवाले गांधीजी के अस्पृश्यतानिवारण-कार्य की अवहेलना तो कोई मूढ़मति ही कर सकता है. गांधीजी कहते थे कि अगर कोई सनातनी यह सिद्ध कर देगा कि वेदों ने अस्पृश्यता को मान्यता दी है तो वे वेदों को छोड देंगे पर अस्पृश्यता को नहीं छोड़ेंगे. १९३१ में गांधीजी को 'अर्धनग्न फकीर' कहने वाले विन्स्टन चर्चिल ने भी गांधीजीकी हरिजनसेवाकी प्रशंसा की थी.
हरिजनो को मंदिर-प्रवेश, उनके लिए पाठशालाएं, कुएं और अन्य कार्य गांधीजी द्वारा दिए गए लोकशिक्षण के ही परिणाम थे. इस लोकशिक्षण का परिणाम इतना जबरदस्त आया कि स्वतंत्रता मिलने के साथ ही हमारे देश से कानूनन अस्पृश्यतानिवारण हो गया. इंग्लेंड जैसे लोकशाही राष्ट्र ने महिलाओं को मताधिकार देने में सालों लगाये. अमरिका और अफ्रीका में श्यामवर्ण लोगों को समान अधिकार मिलने में पीढ़ियां चली गई. लेकिन भारत में स्वतंत्रता मिलने के साथ ही अस्पृश्यतानिवारण का कानून बन गया यह गांधीजी के लोकशिक्षण का ही प्रभाव था.