(ग) उनकी निर्जीव, निराश आहत आत्मा सांत्वना के
लिए विकल हो रही थी, सच्ची स्नेह में डूबी हुई
सांत्वना के लिए उस रोगी की भाँति, जो जीवन-
सूत्र क्षीण हो जाने पर भी वैद्य के मुख की ओर
आशा-भरी आँखो से ताक रहा हो।
अथवा
उसके सारे शरीर से स्वच्छ, कांति प्रवाहित
हो रही थी। अत्यन्त धवल प्रभा-पुँज से
उसका शरीर एक प्रकार से ढंका हुआ सा
ही जान पड़ता था, मानो वह स्फटिक-गृह में
आबद्ध हो, या दुग्ध-सलिल से निमग्न हो,
या विमलन चीनांशुक से समावृत्त हो या दर्पण
में प्रतिबिम्बित हो, या शरद-कालीन मेघपुँज
में अन्तरित चन्द्र-कला हो। उसकी धवल
कांति दर्शक के नयन-मार्ग से हृदय में प्रविष्ट
होकर समस्त कलुषित को धवलित कर देती
थी, मानो स्वर्ग मन्दाकिनी की धवल धारा
समस्त कलुष-कालिमा का प्रक्षालन कर रही
हो। मेरे मन में बार-बार यह प्रश्न उठता
रहा कि इतनी पवित्र रूप-राशि किस प्रकार
इस कलुषपूर्ण धरित्री में सम्भव हुई।"
थन
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