Hindi, asked by pisu88, 1 year ago

गजल और कब्बाली में अंतर क्या ह। give me appropriate answer I will make it brainlist

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Answered by lilyrose
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यूँ समझ लीजिए की समझने की बात है, अंतर कुछ है भी नही, एक कोशिश की है।

ग़ज़ल जज़्बात और अल्फाज़ का एक बेहतरीन संगम हैं, जिसमें तीन बातें, शब्द, तर्ज़ औरआवाज़ अत्यंत अनिवार्य हैं।

ग़ज़ल पर्शियन और अरबी भाषाओं से उर्दू में आयी, यह मूल रूप से अरबी शब्द है और जिसका अर्थ है स्त्रियों से बतियाना।

ग़ज़ल हमेशा प्रेमी के दृष्टिकोण से लिखा जाता है जो अपने प्रिय को प्राप्त करने में असमर्थ है क्योंकि प्रिय या तो सिर्फ कवि की भावनाओं के साथ खेल रहा है, या सामाजिक परिस्थितियों में इसकी अनुमति नहीं है।

प्रेमी इसे स्वीकार करता हैं तथा शब्दों से उजागर करता हैं कि उसके प्रति समान भावनाओं को प्रतिबिंबित नहीं किया जा रहा।

लेकिन समय बीतने के साथ ग़ज़ल का लेखन पटल बदला, विस्तृत हुआ और अब तो ज़िंदगी का ऐसा कोई पहलू नहीं हैं जिस पर ग़ज़ल न लिखी गई हो।

ग़ज़ल कई शेरों से मिलकर बनती हैं। हर शेर में दो पंक्तियां होती हैं।

शेर की हर पंक्ति को मिसरा कहते हैं।

जिसके शुरू में मतला (ग़ज़ल के पहले शेर) होता है।

पूरी ग़ज़ल में एक सा बहर (पंक्ति की लंबाई) होता है जो तीन प्रकार की होती है, छोटी बहर, मध्यम बहर, लंबी बहर।

रदीफ़ (हर शेर के अन्त में आने वाले समान शब्द) भी होते हैं। एक से रदीफ़ वाली ग़ज़लें हमरदीफ़ कहलाती हैं|

कुछ ग़ज़लें बिना रदीफ़ की होती हैं, यानी ग़ैर-मुदर्रफ।

क़ाफ़िया (रदीफ़ से पहले आने वाले मिलते जुलते शब्द) भी ज़रूर होता है।

आख़िर में मक़ता होता है, मक़ते में अक़्सर शायर का तख़ल्लुस यानि उपनाम होता है।

ग़ज़ल की ख़ास बात यह हैं कि उसका प्रत्येक शेर अपने आप में एक संपूर्ण कविता होता हैं और उसका संबंध ग़ज़ल में आने वाले अगले पिछले अथवा अन्य शेरों से हो, यह ज़रूरी नहीं है।ग़ज़ल का इतिहास रोज़ लिखा जा रहा हैं। नये शायर ग़ज़ल के क्षितिज पर रोज़ उभर रहे हैं, और उभरते रहेंगे।

क़व्वाली एकमात्र विधा है जो हिन्दुस्तान की की गंगा जमनी तहज़ीब के मुताबिक गीत, ग़ज़ल, भजन, दोहे, छंद, नज़्म, शेर , सवैये, क्लासिकल, लोक, सुगम और उप-शास्त्रीय संगीत को अपने में समां लेती हैं।

क़व्वाली का इतिहास 700 साल से भी ज्यादा पुराना है।आठवीं सदी में ईरान और अफगानिस्तान में दस्तक देने वाली संगीत की अनोखी विधा शुरुआती दौर से ही सूफी रंगत में डूबी, तेरहवीं सदी में भारत आई।इनका मकसद क़व्वाली के जरिए ईश्वर के साथ संबंध स्थापित करना होता था।

क़व्वाली गायकी के विषयवस्तु में एक रूहानियत है। इसमें एक से अधिक गायक होते हैं और सभी महत्वपूर्ण होते हैं। क़व्वाली को सुनने वाले भी इसका एक अभिन्न अंग होते हैं।

क़व्वाली गाने वालों में:

१-३ मुख्य क़व्वाल,

१-३ ढोलक, तबला और पखावज बजाने वाले,

१-३ हारमोनियम बजाने वाले,

१-२ सारंगी बजाने वाले और ४-६ ताली बजाने वाले होते हैं ।

सभी लोग अपनी वरिष्ठता के क्रम में बायें से दाँये बैठते हैं, यानी वरिष्ठ क़व्वाल दाहिनी ओर बैठे होंगे।

क़व्वाली का प्रारम्भ केवल वाद्य यंत्र बजाकर किया जाता हैं।

इसके बाद मुख्य क़व्वाल आलाप के साथ क़व्वाली का पहला छन्द गाते हैं; ये या तो अल्लाह की शान में होता है अथवा सूफ़ी रहस्यमयता लिये होता है।

इसके बाद बाकी सहायक गायक अपने अपने अंदाज में उसी छंद को गाते हैं।

इसी समय हारमोनियम (तबला, ढोलक और पखावज) साथ देना प्रारम्भ करते हैं।

इसी तरह कव्वाल मुख्य भाग को गाते हुये महफ़िल को उसके चरम तक पँहुचाते हैं।

क़व्वाली का अंत अचानक से होता है।

प्रार्थना, भजन की तरह क़व्वाली में भी शब्दों का ही असली खेल है, लेकिन क़व्वाली की विशेष बनावट के कारण शब्दों और वाक्यों को अलग-अलग तरीके से निखारकर गाया जाता है।

हर बार किसी विशेष स्थान पर ध्यान केंद्रित करने से अलग-अलग भाव सामने आते हैं।

लेकिन जैसे-जैसे कव्वाल शब्दों को दोहराते हैं, शब्द बेमायने होते जाते हैं और सुनने वालों के लिए एक पुरसुकून अहसास बाकी रह जाता है, जहां जाकर वह अध्यात्मिक समाधि में खो जाते हैं।

इसी वजह से क़व्वाली गायक व श्रोताओं को उनकी बेसुधगी के लिए जाना जाता है।

यही क़व्वाली की कामयाबी का चरम है।

अमीर खुसरो, बुल्ले शाह, बाबा फरीद, ख्वाजा गुलाम फरीद, वारिस शाह सूफियाना रंगत के लिए जाने जाते है।

लेकिन पिछली कई शताब्दियों से क़व्वाली में अन्य भावनायें भी सम्मिलित हो गयी हैं।

इनमें दो महत्वपूर्ण हैं; पहली ‘शराब की तारीफ़ में’ और दूसरी “प्रियतम के बिछोह की स्थिति”।

आम तौर पर एक क़व्वाली की अवधि १२-३० मिनट की होती है, आजकल के दौर में क़व्वाली की लम्बी अवधि उसकी लोकप्रियता घटने का मुख्य कारण है।

‘शहंशाह-ए- क़व्वाली’ के नाम से फेमस नुसरत फतेह अली खान सबसे मशहूर क़व्वाल हैं, जिन्होंने क़व्वाली को अंतराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दी।

आम तौर पर कव्वाली गायकी बलपूर्वक और जोश से भरी हुई होती है जबकि ग़ज़ल गायकी बड़ी ही नजाकत, नफासत और कोमलता वाली चीज है।

पांरपरिक तौर पर कव्वाल ग़ज़लें भी गाया करते थे, इसकी वजह है क़व्वाली की तासीर, जो किसी इंसान को बेकरारी से बेखुदी तक ले जाती है।

जिसमें हिंदुस्तान की मिट्टी की खुशबु है, जो सुनने वालों के दिलो दिमाग के साथ साथ रूह में बस जाती है, हम तो है ही हिंदुस्तानी।

प्रेम की ही बात है, खुदा कहिए या इंसान, क़व्वाली कहिए या ग़ज़ल।


pisu88: oh
pisu88: hlw
lilyrose: india
lilyrose: and u?
lilyrose: kerala..n u
pisu88: gwalior ,M.P
lilyrose: wow
Answered by vikasbarman272
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गजल और कव्वाली में अंतर

सल्तनत काल में दो प्रकार की गायन शैलियाँ विकसित हुईं, पहली थी ग़ज़ल और दूसरी थी कव्वाली

  • ग़ज़ल को अरबी में स्त्रीलिंग माना जाता है, जबकि हिंदी में इसे पुल्लिंग माना जाता है। ग़ज़ल का शाब्दिक अर्थ है अपनी प्रेम रुचि से संवाद। एक ग़ज़ल में कम से कम पाँच और ज़्यादा से ज़्यादा ग्यारह शेर होते थे। इसके संग्रह को दीवान कहते हैं। ग़ज़लों का श्रृंगार रस में वर्णन किया जाता था, जिसके कारण उनका गायन संगीत प्रेमियों को भाता था। सूफियों को भी गजल बहुत पसंद थी।
  • कव्वाली का अभ्यास विशेष रूप से सूफी गायकों द्वारा किया जाता था। 'कौल' का अर्थ है कथन। इसे गाने वाले को कव्वाल कहा जाता था। इस शैली को कौवली कहा जाता है। गायक कोडली गाते-गाते भक्तिमय हो जाता था। उसे ऐसा लग रहा था कि अल्लाह उसके सामने प्रकट हो गया है। वे गाते हुए नाचते हैं l

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