गणतंत्र भारत में अंग्रेजों द्वारा भारतीयों पर किए गए अत्याचारों को समझाइए ?
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अंग्रेजों की दुष्टता का बखान
अंग्रेज भारत के लिए कितने दुष्ट रहे और किस प्रकार के निंदनीय और अमानवीय अत्याचारों के आधार पर वे भारत पर शासन करने लगे? इस पर एक अंग्रेज मनीषी हर्बर्ट स्पेंसर ने 1851 ई. में लिखा था-
”पिछली शताब्दी में भारत में रहने वाले अंग्रेज जिन्हें वर्क ने भारत में शिकार की गरज से जाने वाले परिन्दे बतलाया है अपने मुकाबले के पेरू और मेक्सिको निवासी यूरोपियनों से कुछ ही कम जालिम साबित हुए। कल्पना कीजिए कि उनकी करतूतें कितनी काली रही होंगी, जबकि कंपनी के डायरेक्टरों तक ने यह स्वीकार किया है कि भारत के आंतरिक व्यापार में जो बड़ी-बड़ी पूंजियां कमाई गयी हैं वे इतने जबरदस्त अन्यायों और अत्याचारों द्वारा प्राप्त की गयी हैं जिनसे बढक़र अन्याय और अत्याचार कभी किसी देश या किसी जमाने में सुनने में नहीं आये। अनुमान कीजिए कि वंसीटार्ट ने समाज की जिस दशा को बयान किया है वह कितनी वीभत्स रही होगी, जबकि वंसीटार्ट हमें बताता है कि अंग्रेज भारतवासियों को विवश करके जिस भाव चाहते थे उनसे माल खरीदते थे और जिस भाव चाहते थे उनके हाथ बेचते थे। जो कोई इंकार करता था-उसे बेंत या कैदखाने की सजा देते थे। विचार कीजिए-उस समय देश की क्या हालत रही होगी, जबकि अपनी किसी यात्रा को बयान करते हुए वारेन हेस्टिंग्स लिखता है कि हमारे पहुंचते ही अधिकांश लोग छोटे-छोटे कस्बों और सरायों को छोड़-छोडक़र भाग जाते थे। इन अंग्रेज अधिकारियों की निश्चित नीति ही उस समय बिना किसी अपराध के देशवासियों के साथ दगा करना थी। देशी नरेशों को धोखा दे-देकर उन्हें एक दूसरे से लड़ाया गया, पहले उनमें से किसी एक को उसके विपक्षी के विरूद्घ मदद देकर गद्दी पर बिठाया गया और फिर किसी न किसी दुव्र्यवहार का बहाना लेकर उसे भी तख्त से उतार दिया गया। इन सरकारी भेडिय़ों को किसी न किसी गंदे नाले का बहाना सदा मिल जाता था। जिन अधीन देशी सरदारों के पास इस तरह के क्षेत्र होते थे, जिन पर इन लोगों के दांत लगे होते थे-उनमें बड़ी-बड़ी अनुचित रकमें बतौर खिराज के लेकर उन्हें निर्धन कर दिया जाता था और अंत में जब वे इन मांगों को पूरा करने के अयोग्य हो जाते थे तो इसी संगीन अपराध के दण्ड स्वरूप उन्हें गद्दी से उतार दिया जाता था। यहां तक कि हमारे समय 1851 ई. में भी उसी तरह के जुर्म जारी हैं। आज दिन तक नमक का कष्ट कर हजारा और लगान की वही निर्दय प्रथा जारी है-जो निर्धन प्रजा से भूमि की लगभग आधी पैदावार चूस लेती है। आज दिन तक भी वह धूत्र्ततापूर्ण स्वेच्छा शासन जारी है जो देश को पराधीन बनाये रखने तथा उस पराधीनता को बढ़ाने के लिए देशी सिपाहियों का ही साधनों के रूप में उपयोग करता है। इसी स्वेच्छाचारी शासन के नीचे अभी बहुत वर्ष नहीं गुजरे कि हिंदोस्तानी सिपाहियों की एक पूरी रेजीमेंट को इसलिए जानबूझकर कत्ल कर डाला गया कि उस रेजीमेंट के सिपाहियों ने बगैर पहनने के कपड़ों के कूच करने से इंकार कर दिया था। आज दिन तक पुलिस के कर्मचारी धनवान लफंगों के साथ मिलकर निर्धनों से बलात् धन ऐंठने के लिए सारी कानूनी मशीन को काम में लाते हैं। आज के दिन तक साहब लोग हाथियों पर बैठकर निर्धन किसानों की फसलों में से जाते हैं और गांव के लोगों से बिना कीमत दिये रसद वसूल कर लेते हैं। आज के दिन तक यह एक आम बात है कि दूर के ग्रामों में रहने वाले लोग किसी यूरोपीयन का चेहरा देखते ही जंगल में भाग जाते हैं।”