gangna aur mei par laghu katha
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लघुकथा की रचना प्रक्रिया:
क्या ‘लघुकथा’ कहानी में अपनी जगह न बना पा रहे कुछ कुण्ठित लोगों द्वारा अलापा गया कोई बेहूदा राग है? या फिर इस परिश्रम के पीछे देश के पास कागज का और पाठक के पास समय का अभाव मात्र ही कोई कारण है? ‘कथा’ के शाब्दिक अर्थ—‘कथ’ धातु से इसकी व्युत्पत्ति और सीधे अर्थों में—‘वह जो कहा जाए’ जैसे अकादमिक वाक्यों को हम कहाँ-कहाँ नहीं दोहराते। लघुकथा कथा-साहित्य की विधा है तो ‘कथा’ के अर्थ तो बेशक, हमें जानने ही होंगे। ‘कथा’ के जिन प्रचलित और पुराण-शास्त्रीय अर्थों को हमने कहानी(यानी वह जो कहा जाए) तथा उपन्यास के सन्दर्भ में चाटा है, लघुकथा के सन्दर्भ में भी अगर ज्यों-का-त्यों उन्हें ही चाटना होगा तो कथा-साहित्य की विधा के तौर पर ‘लघुकथा’ में नवीनता क्या है? और, कोई नवीनता अगर उसमें है तो यकीन मानिये, ‘कथा’ की प्रचलित परिभाषायें कहानी व उपन्यास के सन्दर्भ में चाहे जितनी मान्य और स्वीकार्य हों, लघुकथा के सन्दर्भ में वे आधी-अधूरी व भ्रामक ही कही जायेंगी। अगर ‘लघुकथा’ को भी ‘कथा’ की पारम्परिक और शास्त्रीय परिभाषा से ही नपना था तो बोधकथा, नीतिकथा, दृष्टान्तकथा, भावकथा आदि से अलग इसका प्रादुर्भाव ‘समकालीन लघुकथा’ के रूप में क्यों हुआ?
किसी नयी विधा को जन्म देने के लिए, या फिर उसके पुनर्प्रादुर्भाव के लिए ही सही, उससे जुड़े लोगों का संवेदनशील होना ही पर्याप्त नहीं रहता। धर्म, राजनीति और अर्थ का जब पतन होना प्रारम्भ होता है तो वह प्रत्येक सामाजिक की संवेदना को प्रभावित करता है। सारा समाज अपनी-अपनी रुचि और प्रकृति के अनुरूप विभिन्न गुटों में बँट जाता है। धार्मिक प्रकृति के लोग राजनीतिक और आर्थिक पतन को, आर्थिक प्रकृति के लोग धार्मिक और राजनीतिक पतन को तथा राजनीतिक प्रकृति के लोग धार्मिक व आर्थिक पतन को सारे पतन का कारण बताने व सिद्ध करने में जुट जाते हैं। चौपाल हो या घर-बाज़ार, जहाँ चार लोग जुड़े, अपना और देश-समाज का रोना शुरू। यह रोना-धोना शनैः शनैः रोचक व रंजक बनाया जाने लगता है और इस प्रक्रिया में सच के साथ कुछ कल्पना(आम बोलचाल की भाषा में ‘झूठ’) भी आ जुड़ती है। किस्से और अफवाहें इसी तरह जन्मते हैं। ‘कथा’ की व्यापक परिभाषा में रोचक, रंजक या विषादपूर्ण शैली में रोना-धोना कहने वाले ये सारे सामाजिक ‘कथाकार’ हैं। ‘संवेदनशीलता’ इससे अलग किसी अन्य आयाम को प्रकट नहीं करती। समाज के चप्पे-चप्पे, रेशे-रेशे और अच्छी-बुरी हर हरकत पर नजर रखने वाले ये ‘कथाकार’ सब-के-सब लेखक तो नहीं बन जाते। इसलिए ऐसा मानना कि जो कथाकार जितना अधिक संवेदनशील होगा, वह समाज से उतने ही अधिक कथानक अपनी लघुकथाओं के लिए चुन सकता है, तर्कसंगत नहीं है। संवेदनशील होना किसी कथाकार को लघुकथाकार बना देगा, ऐसा नहीं है। समाज के जो-जो अन्तर्विरोध किसी सामाजिक की संवेदना को प्रभावित करके उसकी चेतना को आन्दोलित करते हैं, आधिकारिक रूप से केवल उन-उन पर ही वह बोल या लिख सकता है। अतः ‘लघुकथा’ लिखने के लिए कथाकार को कथानक के चुनाव हेतु संवेदनाओं की चिमटी लेकर अखबारों, जंगलों और बाजारों की खाक छानने की आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता है—चेतना को आन्दोलित, जागृत रखने की। चेतना जितनी अधिक प्रखर होगी, लेखनी उतनी ही मुखर होगी। संवेदनशीलता वैचारिकता को जन्म देती है, जबकि आन्दोलन विचारपूर्ण क्रियाशीलता को। समकालीन लघुकथा विचारपूर्ण क्रियाशीलता की उपज है, न कि वैचारिकता की। अपने संदर्भ में, इसका यह गुण ‘कथा’ की इसी व्याख्या की माँग करता है। उपन्यास और कहानी की भले ही ये अपेक्षाएँ न हों। इन दोनों कथा-विधाओं से लघुकथा के अलगाव का यह एक बिन्दु है।
कथानक और शैली ‘लघुकथा’ के आवश्यक अवयव तो हो सकते हैं, तत्व नहीं। तत्व अपनी चेतना में एक पूर्ण इकाई है। ‘मूलत्व’ इसका गुण (प्रोपर्टी) है। लघुकथा का मूल-तत्व है—‘वस्तु’, जो कि प्रत्येक कथा-विधा का है। ‘वस्तु’ को जनहितार्थ सरल, रोचक, रंजक और संप्रेष्य बनाकर प्रस्तुत करने के लिए कथाकार कथानक की रचना कर उसको माध्यम बनाता है। जैसे, पुराण-कथाओं के पीछे ‘वस्तु’रूप में वेद-ॠचाएँ अथवा वैदिक-सूत्र ही हैं। किसी भी कथा-विधा की तरह ही लघुकथा की भी ‘वस्तु’ आत्मा है, कथानक हृदय, शिल्प शरीर और शैली आचरण, जिसके माध्यम से पाठक को वह अपनी ग्राह्यता के प्रति आकर्षित करती है। तात्पर्य यह कि ‘लघुकथा’ में कथानक, शिल्प और शैली ‘वस्तु’ को सम्प्रेष्य और प्रभावी बनाने वाले अवयव हैं, तत्व नहीं।
Explanation:
हिंदू धर्म में, गंगा नदी को पवित्र माना जाता है और देवी गंगा के रूप में प्रतिष्ठित किया जाता है। वह हिंदुओं द्वारा पूजा की जाती है जो मानते हैं कि नदी में स्नान करने से पापों का निवारण होता है और मोक्ष (जीवन और मृत्यु के चक्र से मुक्ति) की सुविधा मिलती है और गंगा का पानी बहुत शुद्ध माना जाता है। तीर्थयात्री अपने परिजनों की राख को गंगा में विसर्जित करते हैं, जो उनके द्वारा आत्माओं को मोक्ष के करीब लाने के लिए माना जाता है।
गंगा को मधुर, सौभाग्यशाली, बहुत दूध देने वाली गाय, अनंत रूप से शुद्ध, रमणीय, मछली से भरा हुआ शरीर, आंखों को प्रसन्न करने वाला और खेल में पहाड़ों पर छलांग लगाने वाला, बिस्तर को सर्वश्रेष्ठ बनाने वाला और पानी देने वाला बताया गया खुशी, खुशी और वह सब जो जीवन जीता है।
हिंदुओं के लिए पवित्र कई स्थान गंगा के किनारे स्थित हैं, जिनमें गंगोत्री, हरिद्वार, इलाहाबाद और वाराणसी शामिल हैं। थाईलैंड में लोय क्रथोंग त्योहार के दौरान, अच्छे भाग्य के लिए गौतम बुद्ध और देवी गंगा को सम्मानित करने और संस्कृत में पाप को धोने के लिए कैंडललाइट फ़्लोट को जलमार्ग में छोड़ा जाता है, जो नैतिक और नैतिक संहिताओं का उल्लंघन करके नकारात्मक कर्मों का वर्णन करता है, जो लाता है नकारात्मक परिणाम)।
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