Gaon se sher ki or palayan
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आजादी के सत्तर सालों में जहां कस्बे शहर, शहर नगर और नगर महानगर बनते चले गए, वहीं गांवों की स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया। गांव आज भी गांव ही है। वही आबोहवा, आंचलिक संस्कृति, एक-दूसरे के सुख-दुख में हिस्सा बंटाने का आत्मीय भाव, अभाव में भी संतुष्टि और इस सबसे बढ़ कर छोटी-सी घटना के घटित होने पर सारे गांव के एकजुट हो जाने का संवेदनशील रवैया। गांव के मूल चरित्र में आज भी कोई बदलाव नहीं आया है। मूल्य, परंपरा और संस्कृति के संरक्षण की दृष्टि से यह शुभ संकेत है। जबकि इस दौरान शहरों और नगरों की संस्कृति और सभ्यता में अनियोजित शहरीकरण के कारण आए बदलाव ने पूरी दुनिया ही बदल कर रख दी है। तेजी से हो रहे शहरीकरण और नगरीकरण का ही नतीजा है कि चार लेन वाली सडक़ों पर सरपट दौड़ती गाडिय़ों, चौराहों पर चमचमाती तेज लाइटें और सडक़ों पर रेंगती की भीड़ के बीच जीवन का असली मकसद जैसे कहीं खो गया है। मनुष्य मशीनों और शहर समस्याओं के केंद्र बन कर रह गए हैं। नगरों, शहरों और महानगरों के आकर्षण में हर कोई गांव छोड़ कर शहर में आ बसना चाहता है, बगैर इस बात की पड़ताल किए कि शहर इसके लिए तैयार हैं भी या नहीं। यह प्रवृत्ति स्वाभाविक और युगीन है। शहर विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अच्छी शिक्षा, अच्छा जीवन, अच्छे कामकाज, रोजगार और अच्छी चिकित्सा की तलाश में लोग शहरों की ओर भाग रहे हैं। एक अनुमान के अनुसार एक करोड़ लोग हर हफ्ते रोजी-रोटी और तरक्की के सपने संजोए गांवों से शहरों की ओर चले आते हैं। चाहे शहरी चकाचौंध का आकर्षण हो या रोजी-रोटी कमाने की मजबूरी, सच्चाई यह है कि दुनिया की करीब आधी आबादी शहरों में बसने लगी है। वातावरण में हर साल घुलने वाली अस्सी फीसद कार्बन डाई आक्साइड इन्हीं शहरों से आती है। वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट के मुताबिक विकासशील देशों में शहरी आबादी साढ़े तीन फीसद सालाना की दर से बढ़ रही है, जबकि विकसित देशों में यह वृद्धि दर मात्र एक फीसद है। संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के मुताबिक अगले बीस सालों में शहरी आबादी जितनी बढ़ेगी, उसका 95 फीसद बोझ विकासशील देशों पर पड़ेगा। यानी सन 2030 तक विकासशील देशों में दो अरब लोग शहरों में रहने लगेंगे। संयुक्त राष्ट्र का यह भी आकलन है कि अगर शहरों पर बढ़ रहे आबादी के बोझ और बढ़ते प्रदूषण को नियंत्रित नहीं किया गया तो एक करोड़ से ज्यादा आबादी वाले बड़े शहरों पर भविष्य में बाढ़ और अन्य प्राकृतिक आपदाओं का खतरा बढ़ जाएगा। शहरों पर ज्यों-ज्यों आबादी का बोझ बढ़ रहा है, लोगों को मिलने वाली सुविधाओं में कमी आ रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक विकासशील देशों में सत्तर फीसद से ज्यादा आबादी यानी करीब नब्बे करोड़ लोग झुग्गी-झोपड़ी में रहते हैं। ऐसे में जहां उनके लिए स्वास्थ्य संबंधी परेशानी बढ़ी है, वहीं पर्यावरण को भी गंभीर नुकसान पहुंचा है। प्रदूषण के चलते शहरों में हर साल करीब दस लाख लोग असमय मौत के शिकार हो जाते हैं। शहरीकरण के कारण रोजमर्रा की समस्याएं भी बढ़ी हैं। इनमें जनसंख्या वृद्धि, गरीबी, बेकारी, अपराध, बाल अपराध, महिला उत्पीडऩ, भीड़भाड़, गंदी बस्तियां, आवास की कमी, बिजली एवं जल आपूर्ति की कमी, प्रदूषण, मदिरा पान और अन्य मादक पदार्थों का सेवन, संचार एवं यातायात संबंधी समस्याएं प्रमुख हैं। शहरीकरण के कारण नगरों और महानगरों में आवास की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। यह कहावत प्रचलित है कि कामकाज की तलाश में आने वालों को नगरों-महानगरों में रहने के लिए घर के अलावा सब कुछ मिल जाएगा।
मुंबई की स्थिति तो यह है कि यहां छह गुणा आठ की एक खोली में चार-पांच लोग अपना जीवन गुजारने को मजबूर हैं। यही नहीं, दुनिया की सबसे बड़ी झोपड़पट्टी बस्ती मुंबई में ही है। फिर भी यहां डेढ़ लाख लोग फुटपाथ पर रात गुजारते हैं। कोलकाता की स्थिति तो और भी दयनीय है। यहां छह लाख लोग फुटपाथ पर रात गुजारने को मजबूर हैं। देश की राजधानी दिल्ली की सतहत्तर फीसद आबादी गंदी बस्तियों में निवास करती है। सघन शहरीकरण का एक प्रभाव भाव-शून्यता, संवेदनहीनता और उदासीनता के रूप में भी देखने को मिलता है। व्यक्ति अपनी समस्याओं में ही इतना उलझा है कि उसे आस-पड़ोस की भी खबर नहीं होती है। बहुमंजिला इमारत के ऊपरी माले पर रहने वाला व्यक्ति नीचे वाले को नहीं जानता। कई बार ऐसा हुआ है कि एकाकी रहने वाले व्यक्ति की मृत्यु का उसके आसपास के लोगों को आठ-दस दिन बाद तब पता चला जब कमरे से दुर्गंध आने लगी। शहरी लोग दूसरों के मामले में उलझना नहीं चाहते। यहां तक कि दुर्घटना, खून-खराबा जैसी अप्रत्याशित गंभीर स्थिति में भी लोग तमाशबीन बने खड़े-खड़े देखते रहते हैं
मुंबई की स्थिति तो यह है कि यहां छह गुणा आठ की एक खोली में चार-पांच लोग अपना जीवन गुजारने को मजबूर हैं। यही नहीं, दुनिया की सबसे बड़ी झोपड़पट्टी बस्ती मुंबई में ही है। फिर भी यहां डेढ़ लाख लोग फुटपाथ पर रात गुजारते हैं। कोलकाता की स्थिति तो और भी दयनीय है। यहां छह लाख लोग फुटपाथ पर रात गुजारने को मजबूर हैं। देश की राजधानी दिल्ली की सतहत्तर फीसद आबादी गंदी बस्तियों में निवास करती है। सघन शहरीकरण का एक प्रभाव भाव-शून्यता, संवेदनहीनता और उदासीनता के रूप में भी देखने को मिलता है। व्यक्ति अपनी समस्याओं में ही इतना उलझा है कि उसे आस-पड़ोस की भी खबर नहीं होती है। बहुमंजिला इमारत के ऊपरी माले पर रहने वाला व्यक्ति नीचे वाले को नहीं जानता। कई बार ऐसा हुआ है कि एकाकी रहने वाले व्यक्ति की मृत्यु का उसके आसपास के लोगों को आठ-दस दिन बाद तब पता चला जब कमरे से दुर्गंध आने लगी। शहरी लोग दूसरों के मामले में उलझना नहीं चाहते। यहां तक कि दुर्घटना, खून-खराबा जैसी अप्रत्याशित गंभीर स्थिति में भी लोग तमाशबीन बने खड़े-खड़े देखते रहते हैं
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गांव से शहर की ओर जाना पलायन कहलाता है। यह एक बहुत ही बड़ी समस्या बन चुकी है। अपने रोजगार हेतु लोग दूसरे स्थानों पर जाने को मजबूर हो चुके हैं।
किस भी जिससे कि बात कर लें, वहां यह समस्या है। बिहार जैसे राज्य जहां कारखाने नहीं हैं और रोजगार के अवसर काफी काम हैं यहां से लाखों कि संख्या में लोग दूसरे शहर की ओर जा रहे हैं।
गांव में अच्छी खेती नहीं होने के कारण लोगों की जरूरत पूरी नहीं हो पाती है। इससे बेहतर वो समझते हैं कि शहर जाकर कोई दूसरा उपाय ढूंढ़ लें।
यही कारण है कि आज शहर में लोग झुग्गियों में रह कर अपना पेट भर रहें हैं। गांव में रोजगार के साधन ना होने की वजह से उन्हें दूर शाहर में जाना पड़ रहा है।
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