गरु और शिष्श का रिश्ता
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Explanation:
गुरु -शिष्य का रिश्ता ही शाश्वत है…
हमारी देह हमें माँ-पिता से मिली है, और हम देह नहीं हैं। देह नश्वर भी है इसलिए देह के रिश्ते भी नश्वर हैं। मित्र से हमारा मन का रिश्ता होता है और 1योंकि हम मन भी नहीं हैं, इसलिए मन के रिश्ते भी बनते तो हैं लेकिन ये रिश्ता भी नश्वर है किन्तु गुरु से एक शिष्य का जो रिश्ता होता है वही एक मात्र आत्मा के तल पर होता है और ये आत्म तत्व ही शाश्वत है, केवल गुरु -शिष्य का रिश्ता ही शाश्वत है।
तभी कहा भी गया है कि गुरु से एक बार संबंध बन जाए अर्थात यदि एक बार आपके अंदर शिष्यत्व का जन्म हो जाए तो फिर गुरु से आपका रिश्ता अटूट हो जाता है। शिष्य एक बकरी या भेड़ की तरह होता है और गुरु एक गड़रिये की भांति होता है। यदि गौर किया हो तो समझिए कि जब एक गड़रिया जंगल में भेड़ों को छोड़ देता है चरने के लिए और शाम को जब वापसी का वक्त आता है तो यदि कोई भेड़ कम हो जाए तो वो फिर वो उसे ढूँढने के लिए निकलता, तो उस समय वो बाकी भेड़ों को तो छोड़ देता है और खोयी हुई भेड़ को ढूँढने निकल जाता है और जब वो मिल जाती है तो उसको फिर वो पैदल नहीं बल्कि अपने कंधे पर लाद कर बड़े प्यार से लाता है।इसी प्रकार एक बार जब ये गुरु-शिष्य का रिश्ता बन जाता है तो भले ही हम नादानियों के कारण इस भव सागर में कहीं भी गुम हो जाएँ लेकिन वो जो हमारा परमपूज्य सतगुरु है वो हमें जन्म दर जन्म ढूँढता है उस भेड़ की तरह और फिर हमें उसी प्रेम से परम घर अर्थात मूल की तरफ उन्मुख कर देता है।
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गुरु और शिष्य का रिश्ता समर्पण के आधार पर टिका होता है। जीवन-समर को पार करने के लिए सद्गुरु रूपी सारथी का विशेष महत्व होता है। शिष्य के लिए तो गुरु साक्षात् भगवान् ही होता है। वह समय-समय पर समुचित मार्गदर्शन कर शिष्य को आगे बढ़ाता रहता है।