gathbandhan rajniti me chetriya dalo ki bhumika me kaise wriddhi huyi udharan dijiye
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भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक गणराज्य है इस नाते इस देश में प्रत्येक व्यक्ति, जाति, वर्ग और समाज की आवाज सत्ता के केन्द्र तक पहुंचे इसकी व्यवस्था की गई है। पिछले कुछ दषकों से हो रहे चुनावों के परिणामों पर गौर करें तो यह समझ आता है कि वर्तमान में ये क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय दलों के लिए बड़ी चुनौती बनते जा रहे हैं। क्षेत्रीय दलों के कारण इन राष्ट्रीय दलों को कईं राज्यों में इनका सहारा लेना पड़ता है और हालात ये है कि भारतीय जनता पार्टी जो वर्तमान में केन्द्र की सत्ता में उसका कईं राज्यों में वजूद तक नहीं है वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस जिसने सबसे लम्बे समय तक देश में राज किया है वह अपने वजूद के लिए संघर्ष कर रही है। क्षेत्रीय दलों के बढ़े प्रभाव ने इन राष्ट्रीय दलों के समक्ष कईं जगह तो अस्तित्व का संकट पैदा कर दिया है। वर्तमान राजनीति में क्षेत्रीय दलों की भूमिका बेहद महत्त्वपूर्ण हो गई है ।
आज राजनीतिक महाकुण्ड में क्षेत्रीय दलों को जो महत्त्व दिया जा रहा है उसका देश के एकात्मक संधीय ढाँचे पर गम्भीर बहुमुखी प्रभाव पड़ेगा । हमारे यहां पर क्षेत्रीय दल कुकुरमुत्तों की भांति है। ये दल वर्ग संघर्ष और प्रांतवाद-भाषावाद के जनक हैं। कुछ पार्टियां वर्ग संघर्ष को कुछ पार्टियां प्रांतवाद और भाषावाद को बढ़ावा देने वाली पार्टियां बन गयीं हैं। इनकी तर्ज पर जो भी दल कार्य कर रहे हैं उनकी ओर एक विशेष वर्ग के लोग आकर्षित हो रहे हैं, जिन्हें ये अपना वोट बैंक मानते हैं। इस वोट बैंक को और भी सुदृढ़ करने के लिए ये दल किस सीमा तक जा सकते हैं-कुछ कहा नहीं जा सकता। देश के सामाजिक परिवेश में आग लगती हो तो लगे, संविधान की व्यवस्थाओं की धज्जियां उड़ती हों तो वे भी उड़ें राष्ट्र के मूल्य उजडते हों तो उजडें इन्हें चाहिए केवल वोट इनकी इस नीति का परिणाम यह हुआ है कि भाषा प्रांत और वर्ग की अथवा संप्रदाय की राजनीति करने वालों के पक्ष में पिछले 20 वर्षों में बड़ी शीघ्रता से जन साधारण का धु्रवीकरण हुआ है। भाषा, प्रांत और वर्ग की कट्टरता के कीटाणु लोगों के रक्त में चढ़ चुके हैं फैल चुके हैं और इस भांति रम चुके हैं कि जनसाधारण रक्तिम होली इन बातों को लेकर कब खेलना आरंभ कर दे-कुछ नहीं कहा जा सकता।
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