गवरा गवरी है कि शरीर को कैसा बता रहा था
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साथ हँसते, साथ ही रोते, एक साथ खाते-पीते, एक साथ सोते। भिनसार होते ही खोते से निकल पड़ते दाना चुगने और झुटपुटा होते ही खोंते में आ घुसते। थकान मिटाते और सारे दिन के देखे-सुने में हिस्सेदारी बटाते। एक शाम गवरइया बोली, “आदमी को देखते हो? कैसे रंग-बिरंगे कपड़े पहनते हैं ! कितना फबता है उन पर कपड़ा!”
“खक फबता है!” गवरा तपाक से बोला, “कपड़ा पहन लेने के बाद तो आदमी और बदसूरत लगने लगता है।”
“लगता है आज लटजीरा चुग गए हो?” गवरइया बोल पड़ी।
“कपड़े पहन लेने के बाद आदमी की कुदरती खूबसूरती ढंक जो जाती है।” गवरा बोला, “अब तू ही सोच! अभी तो तेरी सुघड़ काया का एक-एक कटाव मेरे सामने हैं, रोंवे-रोंवे की रंगत मेरी आँखों में चमक रही है।
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सुघड ans of this question I hope this ans is right so plz like
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