घास के मैदान में परिस्थिति तंत्र का वर्णन कीजिए
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घास के मैदान में परिस्थिति तंत्र का वर्णन कीजिए
घास पारितंत्र में वृक्षहीन शाकीय पौधों के आवरण रहते हैं जो कि विस्तृत प्रकार की घास प्रजाति द्वारा प्रभावी रहते हैं। घास के साथ कई प्रकार के तृणेतर समूह (द्विबीजपत्री जाति) भी इन क्षेत्रों में पाए जाते हैं, खासकर फली जो नाइट्रोजन व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
Explanation:
घास पारितंत्र (Grass EcoSystem)
घास पारितंत्र में वृक्षहीन शाकीय पौधों के आवरण रहते हैं जो कि विस्तृत प्रकार की घास प्रजाति द्वारा प्रभावी रहते हैं। घास के साथ कई प्रकार के तृणेतर समूह (द्विबीजपत्री जाति) भी इन क्षेत्रों में पाए जाते हैं, खासकर फली जो नाइट्रोजन व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। विस्तृत ‘प्रेयरी' उत्तरी अमेरिका में है तथा स्टेपी' यूक्रेन और दक्षिण-पश्चिमी रूस में है। ज्यादातर घासस्थलीय क्षेत्र कम वार्षिक वर्षा वाला होता है, जो कि 25-75 सेमी. प्रतिवर्ष के बीच रहती है।
वाष्पीकरण की दर उच्च होने के कारण भूमि शुष्क हो जाती है। घासस्थल में वर्षा इतनी कम होती है कि वनों को विकसित होने में सहायता नहीं मिल पाती, जबकि यह वर्षा मरुस्थल से काफी ज्यादा होती है।
घासों की प्रबलता को बनाए रखने के लिये तथा काष्ठीय प्रजातियों के आक्रमण को रोकने के लिये बड़े शाकभक्षियों द्वारा चारण एवं आग महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। तनों के आधार से निकली हुई रेखाकार पत्तियाँ चारण (Grazing) के लिये उपयुक्त होती हैं। घासस्थल की प्राथमिक उत्पादकता वर्षा की मात्रा से सीधे संबंधित रहती है। घासस्थल संरचना का सबसे महत्वपूर्ण अभिलक्षण है- उसकी जड़ प्रणाली, जो कि मृदा के तल से बहुत अधिक शाखित रहती है। हालाँकि, ज्यादातर जड़े, मृदा क्षितिज के ऊपर 10 सेमी. तक रहती हैं। घासस्थल में औसतन कुल जीव भार का लगभग आधा भाग जमीनी सतह के नीचे अवस्थित रहता है। प्राथमिक उत्पादकता की तुलना में जड़ों की भागीदारी ज्यादा होती है जो कि कुल उत्पादकता की 75-85 प्रतिशत तक होती है।
मृदा की आंतरिक उर्वरता के कारण विश्व के ज्यादातर प्राकृतिक घासस्थल कृषि के लिये परिवर्तित कर दिये गए हैं।
घासस्थल पारितंत्र को ‘सवाना पारितंत्र' भी कहा जाता है। कुछ पर्यावरणविद् इसे अलग पारितंत्र के रूप में मानते हैं। सवाना शब्द का तात्पर्य एक पूर्ण विकसित घास आवरण के लिये होता है, जिसमें बिखरी हुई झाडियाँ या छोटे वृक्ष भी होते हैं। घास के मैदान धरातल का लगभग 20% भाग घेरे हुए हैं। ये उष्ण व शीतोष्ण दोनों क्षेत्रों में पाए जाते हैं। घास के मैदान विश्व के विभिन्न भागों में भिन्न-भिन्न नाम से जाने जाते हैं।
घास के मैदान उन क्षेत्रों में पाए जाते हैं जहाँ सुपरिभाषित उष्ण और शुष्क, गर्म व वर्षामय जलवायु होती है। सवाना, जिसमें घास के साथ मध्यम ऊँचाई के वृक्ष भी होते हैं। मृदा नमी की उपलब्धता द्वारा सवाना की जाति संरचना एवं उत्पादकता निर्धारित होती है। गधा, जेब्रा, चिंकारा घास के मैदानों में चरते हुए पाए जाते हैं। यह पारितंत्र दुग्ध और चमड़ा उद्योग का आधार है। घास के मैदानों में कृन्तकों, सरीसृपों और कीटों की बहुत बड़ी आबादी पाई जाती है।
भारत के घासस्थल (Grasslands of India)
घास के मैदान पारिस्थितिकीय अनुक्रम का एक मध्यवर्ती चरण है। तथा उन सभी अक्षांशों और उन्नतांशों के भूभाग को घेरे रहते हैं जहाँ जलवायु और मृदा संबंधी परिस्थितियाँ वृक्षों की वृद्धि के लिये उपयुक्त नहीं होती हैं। अंटार्कटिका इसका अपवाद है, जहाँ घास पारितंत्र अनुपस्थित है।
भारत में घास के मैदान ग्रामीण चरागाहों के रूप में तथा देश के पश्चिमी भाग के शुष्क क्षेत्रों के विस्तृत निम्न चरागाहों में और अल्पाइन हिमालय में भी पाए जाते हैं। कुछ क्षेत्रों में घास के मैदान फलीदार पौधों, सूरजमुखी वर्ग के सदस्य पादपों तथा अन्य शाकीय पौधों की विभिन्न किस्मों को भी सहारा देते हैं। जलवायु की स्थिति, मृदा तथा वनस्पति के आधार पर भारत में 8 प्रकार के घासतंत्र पाए जाते हैं।
भारतीय सवाना के प्रमुख घास डाईकैथियम, सेहिमा, फ्रेगमाइट्स सैकेरम, सेक्रम, इंपेरेटा तथा लेसियुरस हैं। सामान्यत: सवाना की काष्ठीय जाति उन वनों की अवशिष्ट जातियाँ हैं जिनसे सवाना की उत्पत्ति हुई है। सवाना के सामान्य वृक्ष एवं झाड़ियाँ प्रोसोपिस, जिफिस, कैपेरिस, एकेसिया, ब्युटिया इत्यादि हैं।
सूक्ष्म कीटों से लेकर विशाल स्तनधारियों तक शाकाहारियों की एक बहुत बड़ी संख्या घास के मैदानों में पाई जाती है। चूहे, हिरन, कुत्ते, भैंसे, नेवले सामान्य रूप से पाए जाने वाले जीव हैं। उत्तर-पूर्वी भारत में एक सींग वाला गैंडा उन सुभेद्य (Vulnerable) जन्तुओं में से एक है। जो इस क्षेत्र के घास के मैदानों में पाया जाता है। पक्षियों की भी एक बड़ी संख्या घास के मैदानों में पाई जाती हैं।