घन घमंड नभ गरजत घोरा । प्रिया हीन डरपत मन मोरा ।।
दामिनि दमक रहहिं धन माहीं । खल कै प्रीति जथा थिा नाहीं ।।
बरपहिं जलद भूमि निराएँ । जथा नवहिं बुध विद्या पाएँ ।।
बूंद अघात सहहि गिरि कैसे । खल के बचन संत सह जैसे ।।
छुद्र नदी भरि चली तोराई । जस थोरेहुँ धन खल इतराई ।।
भूमि परत भा ढाबर पानी । जनु जीवहि माया लपटानी ।।
समिटि-समिटि जल भरहिं तलावा । जिमि सदगुन सज्जन पहि आवा ।।
सरिता जल जलनिधि महुँ जाई । होई अचल जिमि जिव हरि पाई ।।
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Answer:
घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा॥
दामिनि दमक रह घन माहीं। खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं॥1॥
भावार्थ:-आकाश में बादल घुमड़-घुमड़कर घोर गर्जना कर रहे हैं, प्रिया (सीताजी) के बिना मेरा मन डर रहा है। बिजली की चमक बादलों में ठहरती नहीं, जैसे दुष्ट की प्रीति स्थिर नहीं रहती॥1॥
* बरषहिं जलद भूमि निअराएँ। जथा नवहिं बुध बिद्या पाएँ।
बूँद अघात सहहिं गिरि कैसे। खल के बचन संत सह जैसें॥2॥
भावार्थ:-बादल पृथ्वी के समीप आकर (नीचे उतरकर) बरस रहे हैं, जैसे विद्या पाकर विद्वान् नम्र हो जाते हैं। बूँदों की चोट पर्वत कैसे सहते हैं, जैसे दुष्टों के वचन संत सहते हैं॥2॥
* छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई। जस थोरेहुँ धन खल इतराई॥
भूमि परत भा ढाबर पानी। जनु जीवहि माया लपटानी॥3॥
भावार्थ:-छोटी नदियाँ भरकर (किनारों को) तुड़ाती हुई चलीं, जैसे थोड़े धन से भी दुष्ट इतरा जाते हैं। (मर्यादा का त्याग कर देते हैं)। पृथ्वी पर पड़ते ही पानी गंदला हो गया है, जैसे शुद्ध जीव के माया लिपट गई हो॥3॥
* समिटि समिटि जल भरहिं तलावा। जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा॥
सरिता जल जलनिधि महुँ जोई। होइ अचल जिमि जिव हरि पाई॥4॥
Explanation:
Answer:
घन घमंड नभ गरजत घोरा । प्रिया हीन डरपत मन मोरा ।।
दामिनि दमक रहहिं धन माहीं । खल कै प्रीति जथा थिा नाहीं ।।
बरपहिं जलद भूमि निराएँ । जथा नवहिं बुध विद्या पाएँ ।।
बूंद अघात सहहि गिरि कैसे । खल के बचन संत सह जैसे ।।
छुद्र नदी भरि चली तोराई । जस थोरेहुँ धन खल इतराई ।।
भूमि परत भा ढाबर पानी । जनु जीवहि माया लपटानी ।।
समिटि-समिटि जल भरहिं तलावा । जिमि सदगुन सज्जन पहि आवा ।।
सरिता जल जलनिधि महुँ जाई । होई अचल जिमि जिव हरि पाई ।।