घन घमंड नभ गरजत घोरा । प्रिया हीन डरपत मन मोरा ।।
दामिनि दमक रहहिं धन माहीं। खल के प्रीति जथा थिर नाहीं ।।
बरपहिं जलद भूमि निअराएँ । जथा नवहिं बुध बिया पाएँ ।
बूंद अघात सहहिं गिरि कैसे । खल के बचन संत सह जैसे ।
छुद्र नदी भरि चली तोराई । जस थोरेहुँ धन खल इतराई ।।
भूमि परत भा ढाबर पानी । जनु जीवहिं माया लपटानी ।।
समिटि-समिटि जल भरहिं तलावा । जिमि सदगुन सज्जन पहिं आया ।।
सरिता जल जलनिधि महुँ जाई । होई अचल जिमि जिव हरि पाई।
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Explanation:
मानस में तुलसी दास जी ने किष्किन्धाकाण्ड में स्वयं राम जी के श्रीमुख से वर्षा ऋतु का वर्णन किया है जो अद्भुत और अविस्मरणनीय है,. आज मानस के इसी प्रसंग के कुछ अंश आपसे साझा करता हूँ ...
..राम गहन जंगलों में ऋष्यमूक पर्वत पर जा पहुंचे हैं ...सुग्रीव से मैत्री भी हो चुकी है. सीता की खोज का गहन अभियान शुरू हो इसके पहले ही वर्षा ऋतु आ जाती है .।
वर्षा का दृश्य राम को भी अभिभूत करता है .वे लक्ष्मण से कह पड़ते हैं ..
...बरषा काल मेघ नभ छाए। गरजत लागत परम सुहाए ....
.हे लक्ष्मण देखो ये गरजते हुए बादल कितने सुन्दर लग रहे हैं.....और इन बादलों को देखकर मोर आनन्दित हो नाच रहे हैं ......मगर तभी अचानक ही सीता की याद तेजी से कौंधती है और तुरंत ही बादलों के गरजने से उन्हें डर भी लगने लगता है .... :-)
-घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा॥...
आखिर वे लीला ही तो कर रहे हैं ..एक साधारण विरही की भांति .....
अब बिजली चमकती है तो वे कह पड़ते हैं -
दामिनि दमक रही घन माहीं। खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं॥
अर्थात बादलों में बिजली ठीक वैसी ही रह रह कर कौंध रही है जैसे किसी दुष्ट की प्रीति स्थिर नहीं होती, बस क्षणिक सी होती है ......और लक्षमण जरा पानी के बोझ से नीचे तक आते हुए इन बादलों को तो देखो जो वैसे ही लग रहे है जैसे विद्या पाकर विद्वान और विनम्र हो जाते हैं .....
और यह भी तो देखो कि वर्षा बूदों को ये पर्वत शिखर ऐसे सह रहे हैं जैसे दुष्ट जनों के दुर्वचनों को संत लोग सहज ही सह लेते हैं
. बरषहिं जलद भूमि निअराएँ। जथा नवहिं बुध बिद्या पाएँ॥
बूँद अघात सहहिं गिरि कैंसें । खल के बचन संत सह जैसें॥...
.और वर्षा से ये छोटी मोटी नदियाँ तो ऐसी उफना कर बह रही हैं जैसे थोड़ा सा ही धन मिलते ही दुष्ट जन भी इतराने लगते हैं ,मर्यादाओं का त्याग कर उठते हैं . .
..छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई। जस थोरेहुँ धन खल इतराई॥....
और लक्ष्मण यह भी तो देखो वर्षा जल कैसे तालाबों में वैसे ही सिमटता आ रहा है जैसे कि सदगुण एक एक कर सज्जनों के पास चले आते हैं ..
समिटि समिटि जल भरहिं तलावा। जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा॥
अब वर्षा ऋतु है तो उसके अग्रदूत भला कैसे पीछे रहते ....मेढकों की टर्राहट परिवेश को गुंजित कर रही है ..राम का ध्यान सहसा ही इन आवाजों की और जाता है और वे उन्हें एक परिहास सूझता है .
.कह पड़ते हैं, लक्ष्मण इन मेढकों की टर्राहट तो एक ऐसी धुन सी सुनायी पड़ रही है जैसे वेदपाठी ब्राह्मण विद्यार्थी वैदिक ऋचाओं का समूह पाठ कर रहे हों ....
दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई। बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई॥
यह अंश तुलसी दास जी ने ऋग्वेद से प्रेरित होकर मानो लिया है जहाँ मेढकों के वर्षा ऋतु गायन पर "मंडूक" नाम्नी ऋचाएं हैं(संवत्सरं शशयानाः ब्राह्मणाः व्रतचारिणः वाचम पर्जन्यअजिंविताम प्र मंडूकाः अवादिशुः -एक वर्षीय निद्रा से उठकर मौन वर्ती ब्राह्मणों की तरह ही बादलों के आगमन से हर्षित हो मेढक गण मानो वेदाभ्यास कर रहे हों ) .
.अब वर्षा ऋतु है तो जुगनू भी दिप दिप कर रहे हैं ..
राम को लगता है ये तो अँधेरे में ऐसे शोभायमान हो रहे हैं जैसे दम्भियों का पूरा समाज ही आ जुटा हो .....
निसि तम घन खद्योत बिराजा। जनु दंभिन्ह कर मिला समाजा॥
अब भरी वर्षा हो चली है .....राम देखते हैं छोटी छोटी क्यारियाँ और नाले भी उफनाकर बह चले हैं और वे फिर हास -परिहास भरी बात कह उठते हैं -
महाबृष्टि चलि फूटि किआरीं । जिमि सुतंत्र भएँ बिगरहिं नारीं॥...
.लो अब तो तेज हवाएं भी चलने लगीं .....और राम कह पड़े ...लक्ष्मण,तेज हवाओं से बादल उसी तरह अदृश्य हो जा रहे हैं जैसे कुपुत्र के होने से कुल के उत्तम कर्म /धर्म नष्ट हो जाते हैं ....और कभी तो बादलों के कारण ही दिन में भी घोर अन्धकार छा जाता है तो कभी उनके हटने से सूर्य निकल आता है ठीक वैसे ही जैसे कुसंग पाकर ज्ञान नष्ट हो जाता है और फिर सुसंग पाकर वापस लौट आता है -
कबहुँ प्रबल बह मारुत जहँ तहँ मेघ बिलाहिं।
जिमि कपूत के उपजें कुल सद्धर्म नसाहिं॥
कबहुँ दिवस महँ निबिड़ तम कबहुँक प्रगट पतंग।
बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ कुसंग सुसंग॥
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