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कर्म कारक – द्वितीया विभक्तिः – Karm Karak in Sanskrit
(1) कर्ता क्रियया यं सर्वाधिकम् इच्छति तस्य कर्मसंज्ञा भवति। (कर्तुरीप्सिततमं कर्म।) (कारक) कर्मणि च द्वितीया विभक्तिः भवति। (कर्मणि द्वितीया) यथा संजीव पास बुक्स (कर्त्ता क्रिया के द्वारा जिसको सबसे अधिक चाहता है, उसकी कर्म संज्ञा होती है तथा कर्म में द्वितीया विभक्ति आती है। जैसे–
रामः ग्रामं गच्छति।
बालकाः वेदं पठन्ति।
वयं नाटकं द्रक्ष्यामः।
साधु : तपस्याम् अकरोत्।
सन्दीपः सत्यं वदेत्।।
(2) निम्नलिखित शब्दों के योग में द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे–
अभित:/उभयतः (दोनों ओर) – राजमार्गम् अभितः वृक्षाः सन्ति।
परितः/सर्वतः (चारों ओर) – ग्रामं परितः क्षेत्राणि सन्ति।
समया/निकषा (समीप में) – विद्यालयं निकषा देवालयः अस्ति।
अन्तरेण/विना (बिना) – प्रदीपः पुस्तकं विना पंठति।
अन्तरा (बीच में) – रामं श्यामं च अन्तरा देवदत्तः अस्ति।
धिक् (धिक्कार) – दुष्टं धिक्।
हा (हाय) – हा दुर्जनम्!
प्रति (ओर) – छात्राः विद्यालयं प्रति गच्छन्ति।
अनु (पीछे) – राजपुरुषः चौरम् अनु धावति।
यावत् (तक) – गणेश: वनं यावत् गच्छति।
अधोऽधः (सबसे नीचे) – भूमिम् अधोऽधः जलम् अस्ति।
अध्यधि (अन्दर – अन्दर) – लोकम् अध्यधि हरिः अस्ति।
उपर्युपरि (ऊपर – ऊपर) – लोकम् उपर्युपरि सूर्यः अस्ति।
(3) अधिशीस्थासां कर्म –
अधि उपसर्गपूर्वक शीङ्, स्था तथा आस् धातुओं के योग में इनके आधार की कर्मसंज्ञा होती है तथा कर्म में द्वितीया विभक्ति प्रयुक्त होती है।
उदाहरणार्थम्
अधिशेते (सोता है) – सुरेशः शय्याम् अधिशेते।
अधितिष्ठति (बैठता है) – अध्यापकः आसन्दिकाम् अधितिष्ठति।
अध्यास्ते (बैठता है) – नृपः सिंहासनम् अध्यास्ते।
(4) उपान्वध्याङवस: –
उप, अनु, अधि, आ उपसर्गपूर्वक वस् धातु के योग में इनके आधार की कर्म संज्ञा होती है एवं कर्म में द्वितीया विभक्ति प्रयुक्त होती है। यथा
उपवसति (पास में रहता है) – श्यामः नगरम् उपवसति।
अनुवसति (पीछे रहता है) – कुलदीप: गृहम् अनुवसति।
अधिवसति (में रहता है) – सुरेशः जयपुरम् अधिवसति।
आवसति (रहता है) – हरिः वैकुण्ठम् आवसति।
(5) अभिनिविशश्च –
‘अभि नि’ इन दो उपसर्गों के साथ विश् धातु का प्रयोग होने पर इसके आधार की कर्म संज्ञा होती है एवं कर्म में द्वितीया विभक्ति आती
(i) अभिनिविशते (प्रवेश करता है) – दिनेश: ग्रामम् अभिनिविशते। (दिनेश गाँव में प्रवेश करता है।)
(6) अकथितं च – अपादान आदि कारकों की जहाँ क्विक्षा नहीं होती है, वहाँ उसकी कर्मसंज्ञा होती है और कर्म में द्वितीया विभक्ति प्रयुक्त होती है। संस्कृत भाषा में इस प्रकार की 16 धातुएँ हैं, जिनके प्रयोग में एक तो मुख्य कर्म होता है और दूसरा अपादानादि कारकों से अविवक्षित गौण कर्म होता है। इस गौण कर्म में ही द्वितीया विभक्ति प्रयुक्त होती है। ये धातुएँ ही द्विकर्मक धातुएँ कही जाती हैं। इनका प्रयोग यहाँ किया जा रहा है…
दुह् (दुहना) – गोपालः गां दुग्धं दोग्धि। (गोपाल गाय से दूध दुहता है।)
याच् (माँगना) – सुरेशः महेशं पुस्तकं याचते।। (सुरेश महेश से पुस्तक माँगता है।)
पच् (पकाना) – पाचकः तण्डुलान् ओदनं पचति। (पाचक चावलों से भात पकाता है)
दण्ड् (दण्ड देना) – राजा गर्गान शतं दण्डयति। (राजा गर्गो को सौ रुपए का दण्ड देता है।)
प्रच्छ् (पूछना) – स: माणवकं पन्थानं पृच्छति। (वह बालक से मार्ग पूछता है।)
रुध् (रोकना) ग्वाल: गां व्रजम् अवरुणद्धि। (ग्वाला गाय को व्रज में रोकता है।)
चि (चुनना) मालाकारः लतां पुष्पं चिनोति।(माली लता से पुष्प चुनता है।)
जि (जीतना) नृपः शत्रु राज्यं जयति। (राजा शत्रु से राज्य को जीतता है।)
ब्रु (बोलना)। – गुरु शिष्यं धर्मं ब्रूते/शास्ति। शास् (कहना) – (गुरु शिष्य से धर्म कहता है।)
मथ् (मथना) – सः क्षीरनिधिं सुधां मनाति। (वह क्षीरसागर से अमृत मथता है।)
मुष् (चुराना) चौर: देवदत्तं धनं मुष्णाति। (चोर देवदत्त का धन चुराता है।)
नी (ले जाना) – सः अजां ग्रामं नयति। (वह बकरी को गाँव ले जाता है।)
ह (हरण करना) – सः कृपणं धनं हरति। (वह कंजूस के धन का हरण करता है।) सः ग्रामं धनं हरति। (वह गाँव में धन को ले जाता है)
वह (ले जाना) – कृषक: ग्रामं भारं वहति। (किसान गाँव में बोझा. ले. जाता है।)
कृष् (खींचना) – कृषकः क्षेत्रं महिषीं कर्षति। (किसान खेत में भैंस को खींचता है।)
(7) कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे – कालवाचक और मार्गवाचक शब्द में अत्यन्त संयोग होने पर गम्यमान में द्वितीया विभक्ति प्रयुक्त होती है। यथा–
सुरेशः अत्र पञ्चदिनानि पठति। – (सुरेश यहाँ लगातार पाँच दिन से पढ़ रहा है।)
मोहनः मासम् अधीते। – (मोहन लगातार महीने भर से पढ़ता है।)
नदी क्रोशं कुटिला अस्ति। – (नदी कोस भर तक लगातार टेढ़ी है।)
प्रदीपः योजनं पठति। – (प्रदीप लगातार एक योजन तक पढ़ता है।)
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