Hindi, asked by mv4472290, 5 months ago

Gum hota bachpan visay par 1fitcher likho

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Answered by hiteshsharma25031981
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हमारी पेंट की जेब में कंचे, रंग-बिरंगे पत्थर, कांच की चूड़ियों के टुकड़े, माचिस की खाली डिब्बियां होती थीं। रिमझिम बारिश में खूब भीगते थे। खेत की गीली मिट्टी से ट्रेक्टर बनाते थे। बालू के ढेर में गड्ढे बना कर नीचे से हाथ मिलाते थे। कागज की नाव बना कर नालियों में तैराकी की स्पर्द्धा हुआ करती थी। और तो और, दूसरे के बगीचे से आम, अमरूद और बेर चुरा कर खाते थे। उसका अपना एक अलग ही मजा था। कभी-कभी पकड़े जाते तो डांट भी खूब पड़ती थी। शरारत, खेलकूद, मौजमस्ती….. न कल की फिक्र थी न आज की चिंता।

ऐसी ही बहुत-सी शैतानियों से लबरेज था हमारा बचपन। सच में बचपन उम्र का सबसे बेहतरीन पड़ाव है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में बहुत कुछ बदल गया है। गिल्ली डंडा, कंचे गोली, चोर सिपाही, टीपू जैसे खेलों की जगह वीडियो गेम्स ने ले ली है। उन खेलों के बारे में आज के बच्चे जानते तक नहीं हैं। मोबाइल और कंप्यूटर पर मोर्टल कॉम्बैट, सबवे सर्फ और टेंपल रन जैसे खेलों ने इन खेलों को बाहर कर दिया है।

हमारी पेंट की जेब में कंचे, रंग-बिरंगे पत्थर, कांच की चूड़ियों के टुकड़े, माचिस की खाली डिब्बियां होती थीं। रिमझिम बारिश में खूब भीगते थे। खेत की गीली मिट्टी से ट्रेक्टर बनाते थे..

चाइल्ड राइट्स एंड यू (क्राई) की रिपोर्ट के मुताबिक देश में 1.02 करोड़ बच्चे काम कर अपना जीवनयापन कर रहे हैं।

हमारी पेंट की जेब में कंचे, रंग-बिरंगे पत्थर, कांच की चूड़ियों के टुकड़े, माचिस की खाली डिब्बियां होती थीं। रिमझिम बारिश में खूब भीगते थे। खेत की गीली मिट्टी से ट्रेक्टर बनाते थे। बालू के ढेर में गड्ढे बना कर नीचे से हाथ मिलाते थे। कागज की नाव बना कर नालियों में तैराकी की स्पर्द्धा हुआ करती थी। और तो और, दूसरे के बगीचे से आम, अमरूद और बेर चुरा कर खाते थे। उसका अपना एक अलग ही मजा था। कभी-कभी पकड़े जाते तो डांट भी खूब पड़ती थी। शरारत, खेलकूद, मौजमस्ती….. न कल की फिक्र थी न आज की चिंता।

ऐसी ही बहुत-सी शैतानियों से लबरेज था हमारा बचपन। सच में बचपन उम्र का सबसे बेहतरीन पड़ाव है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में बहुत कुछ बदल गया है। गिल्ली डंडा, कंचे गोली, चोर सिपाही, टीपू जैसे खेलों की जगह वीडियो गेम्स ने ले ली है। उन खेलों के बारे में आज के बच्चे जानते तक नहीं हैं। मोबाइल और कंप्यूटर पर मोर्टल कॉम्बैट, सबवे सर्फ और टेंपल रन जैसे खेलों ने इन खेलों को बाहर कर दिया है।

इस आपाधापी और भागदौड़ भरी जिंदगी में बचपन गुम-सा हो गया है। अब बच्चों को रामायण, महाभारत और परियों की कहानियां कोई नहीं सुनाता। मेले में बच्चे अब खिलौनों के लिए हठ भी नहीं करते। उनमें वो पहले जैसा चंचलपन और अल्हड़पन भी नहीं रह गया है। इस सबमें उनके माता-पिता और अभिभावकों का कसूर बहुत ज्यादा है। उनके पास अपने बच्चों के लिए समय नहीं है। वे बच्चों को वीडियो गेम थमा देते हैं और बच्चा घर की चहारदिवारी के बाहर की दुनिया को कभी समझ ही नहीं पाता। वह अपने में ही दुबक कर रह जाता है। अभिभावक अपनी इच्छाओं के बोझ तले उनके बचपन को दबाने पर आमादा हैं। अपने बचपन के दिनों को तो याद कर वे जरूर फिल्म ‘दूर की आवाज’ का ये गाना गुनगुनाते होंगे: ‘हम भी अगर बच्चे होते/ नाम हमारा होता गबलू बबलू/ खाने को मिलते लड्डू…।’

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