Guptkaal ki nayah vavastha ko samjhaie
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गुप्तकाल की समकालीन स्मृतियों – नारद स्मृति तथा बृहस्पति स्मृति से पता चलता है, कि गुप्त युग में न्याय-व्यवस्था अत्यधिक विकसित थी। गुप्त युग में प्रथम बार दीवानी तथा फौजदारी अपराधों से संबंधित कानूनों की व्याख्या प्रस्तुत की गयी। उत्तराधिकार संबंधी स्पष्ट एवं विशद कानूनों का निर्माण किया गया।
सम्राट देश का सर्वोच्च न्यायाधीश होता था। वह सभी प्रकार के मामलों के सुनवाई की अंतिम अदालत था। सम्राट के अलावा एक मुख्य न्यायाधीश होता था। तथा अन्य अनेक न्यायाधीश होते थे, जो साम्राज्य के विभिन्न भागों में स्थित अनेक न्यायालयों में न्याय संबंधी कार्यों को देखते थे।
व्यापारियों तथा व्यवसायियों की श्रेणियों के अपने अलग न्यायालय होते थे, जो अपने सदस्यों के विवादों का निपटारा करते थे। स्मृति ग्रंथों में पूग तथा कुल नामक संस्थाओं का भी उल्लेख मिलता है, जो अपने सदस्यों के विवादों का फैसला करता थी।
पूग नगर में रहने वाली विभिन्न जातियों की समिति होती थी, जबकि कुल समान परिवार के सदस्यों की समिति थी। इन सभी को राज्य की ओर से मान्यता मिली हुयी थी। ग्रामों में न्याय का कार्य ग्राम पंचायतें किया करते थी। पेशेवर वकीलों का अस्तित्व नहीं था। न्यायालयों में प्रमाण भी लिया जाता था।
जहाँ कोई प्रमाण नहीं मिलता था, वहाँ अग्नि, जल, विष, तुला आदि के द्वारा दिव्य परीक्षायें ली जाती थी। गुप्तकालीन अभिलेखों में न्यायाधीशों को महादंडनायक, दंडनायक, सर्वदंडनायक आदि कहा गया है। नालंदातथा वैशाली से कुछ न्यायालयों की मुद्रायें भी मिलती है, जिनके ऊपर न्यायाधिकरण, धर्माधिकरण तथा धर्मशासनाधिकरण अंकित है।
फाहियान के विवरण से पता चलता है, कि दंडविधान अत्यंत कोमल था। मृत्युदंड नहीं दिया जाता था, और न ही शारीरिक यातनायें मिलती थी। सम्राट स्कंदगुप्त के जूनागढ लेख से भी पता चलता है, कि उस काल में दंडों के द्वारा अत्यधिक पीङा नहीं पहुँचायी जाती थी। मृच्छकटिक से पता चलता है, कि चारुदत्त को हत्यारा सिद्ध हो जाने पर भी मृत्यु दंड नहीं दिया गया था।
अपराधों में सामान्यतः आर्थिक जुर्माने लिये जाते थे। बार-२ राजद्रोह का अपराध करने वाले व्यक्ति का दाहिना हाथ काट लिया जाता था। अन्य दंड मौर्ययुग की अपेक्षा मृदु थे। कुछ मामलों, जैसे पशुओं को नष्ट करना आदि, में जहाँ कौटिल्य मृत्युदंज का विधान करता है, वहाँ गुप्तकालीन स्मृतियाँ मात्र प्रताङित करने का विधान प्रस्तुत करती हैं। इस प्रकार गुप्त सम्राटों ने प्राचीन भारतीय दंड विधान को उदार एवं मृदु बनाने का प्रयास किया था।
जब हम इस देश में जासूसी तथा अपराधों के लिये कठोर दंडों की प्राचीन परंपरा का स्मरण करते हैं, तो हमें यह मानने के लिये बाध्य होना पङता है,कि गुप्तों के प्रशासन ने प्राचीन भारतीय दंड विधान में मानवीय सुधार के एक नये युग का सूत्रपात किया था।
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