- ही जीव है के सामने संसाशों की महत्ता और शियाप्तीश
मे झाी स्थिति परगट कियाजल ही जीवन के संदर्भ में जल संसाधनों की महत्ता और हिमाचल प्रदेश में इनकी स्थिति पर नोट लिखें
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Explanation:
गर्मी शुरू होते ही पूरे देश में पानी को लेकर तनाव बढ़ जाता है। नगरपालिकाएँ लोगों की प्यास बुझाने के लिए संघर्ष करती नजर आती हैं। हर साल जल संसाधनों और उपभोक्ताओं के बीच माँग और आपूर्ति की दूरी बढ़ती ही जाती है। देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई पानी के टैंकरों पर बुरी तरह निर्भर हो जाती है।
दिल्ली को अपनी प्यास बुझाने के लिए हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड की ओर देखना पड़ता है। जयपुर से लेकर बिसल तक, हल्द्वानी से लेकर जामरानी तक, भोपाल से होशंगाबाद और इन्दौर से लेकर माहेश्वर तक यानी हर जगह पानी के लिए हाहाकार देखा जा सकता है। हमारे नीति निर्माता न तो जल भंडारण और न ही नए जलस्रोतों के विकास पर ध्यान दे रहे हैं।
हजारों किलोमीटर से नहर और पाइपलाइन से पानी लाने में सारा जोर लगा रहता है। इस कवायद पर लोगों का ध्यान इतना ज्यादा है कि गिरते भूजल स्तर को रोकना प्राथमिकता में शामिल नहींं है।
भारतीय नदियों में पानी का प्रवाह और इसकी गुणवत्ता बुरी तरह से प्रभावित हुई है। जबकि पानी की माँग लगातार बढ़ती जा रही है। बड़ी नदियों की सहायक नदियों और जलधाराएँ लगातार सूखती जा रही हैं। इससे साफ हो गया है पानी कभी न ख़त्म होने वाला संसाधन नहींं है। पानी के स्रोतों का जरूरत से ज्यादा दोहन हो रहा है और फैक्टरियाँ लगातार अपना कचरा नदियों में गिराती जा रही हैं।
औद्योगिक फार्मिंग और शहरीकरण की वजह से पानी की गुणवत्ता में लगातार कमी आ रही है। यहाँ तक कि नदियों के करीब रहने वाले समुदायों को भी पानी का संकट झेलना पड़ रहा है।
दिल्ली में पानी की माँग का दबाव इतना ज्यादा है कि सरकार को इसके लिए दूर-दूर तक तलाश करनी पड़ रही है। इस मद में ज्यादा-से-ज्यादा पैसे झोंके जा रहे हैं। दिल्ली सरकार ने हिमाचल प्रदेश में गिरी नदी पर बनी डैम के लिए 2, 000 करोड़ रुपए ख़र्च किए।
दिल्ली सरकार को उम्मीद है वह यहाँ से पानी ला सकेगी। लेकिन इस पानी की लागत काफी ज्यादा होगी। डैम की वजह से कई गाँव पूरे-के-पूरे विस्थापित होंगे। उनके पुनर्वास में भारी रकम ख़र्च होगी। विडम्बना यह है कि दिल्ली यमुना के किनारे बसी हुई है लेकिन गन्दे नाले में तब्दील हो चुकी इस नदी को पुनर्जीवित करने की कोशिश नहींं की जा रही है।
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली इस देश के सभी शहरों के लिए एक सबक है। अगर हम नदियों को इसी तरह से गन्दा करते रहे तो हर शहर के सामने ऐसी समस्या आ सकती है। यानी नदी घर के पास से बह रही होगी लेकिन आप इससे अपनी प्यास नहींं बुझा सकेंगे। एक पानी से भरी नदी को गन्दे पानी के नाले में तब्दील कर राजधानीवासी अब सैकड़ों किलोमीटर पहाड़ी नदियों से पानी लाने की कोशिश कर जाती है।
देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई पानी के टैंकरों पर बुरी तरह निर्भर हो जाती है। दिल्ली को अपनी प्यास बुझानेके लिए हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड की ओर देखना पड़ता है। जयपुर से लेकर बिसल तक, हल्द्वानी से लेकर जामरानी तक, भोपाल से होशंगाबाद और इन्दौर से लेकर माहेश्वर तक यानी हर जगह पानी के लिए हाहाकारदेखा जा सकता है।
हमारे नीति निर्माता न तो जल भण्डारण और रहे हैं। मध्य भारत की नदियों की स्थिति अच्छी नहींं है। नर्मदाका उदाहरण ले सकते हैं। मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र के करोड़ों लोग इस पर निर्भर हैं।
वर्ष 1990-91 से लेकर 2008-09 तक पानी की प्रवाह दर 1, 77,766 क्यूबिक मीटर घट गई है। 42 सहायक नदियों में प्रवाह 42 फीसदी घट गया है। इस अवधि में पानी की माँग में कई गुना वृद्धि हुई है। शाहजंग से भोपाल तक बिछी नयी पाइपलाइन से झीलों के इस शहर को हर दिन 18 करोड़ लीटर पानी मुहैया कराया जाएगा।
पानी के अन्धाधुन्ध दोहन से कई दूसरी तरह की समस्याएँ पैदा हुई हैं। नर्मदा नदी में मिलने वाली मशहूर महाशीर मछली का अस्तित्व संकट में है। डैमों के निर्माण और प्रदूषण बढ़ने से स्वच्छ पानी में मिलने वाली मछलियों कीकई प्रजातियाँ ख़तरे का सामना कर रही हैं।
ऐसी नदियों में औद्योगिक कचरा बहाया जा रहा है। कोयला खदानों और वाशरीज से निकलने वाली गन्दगी का सबसे बुरा उदाहरण दामोदर नदी है। ताप बिजलीघर, कोयला भट्ठी और रासायनिक उद्योगों से निकलने वाले कचरे ने दामोदर नदी को पूरी तरह प्रदूषित कर दिया है।
कई जगह तो नदी एक पतली धार में तब्दील हो गई है और पानी कहीं ज्यादा अम्लीय तो कहीं अति क्षारीय हो गया है। नदियों के पानी में भारी मात्रा धातु घुल चुके हैं। पानी में मौजूद जैव विविधता पूरी तरह ख़त्म हो चुकी है। अब ये नदियाँ किनारों पर रहने वाले लोगों के लिए संक्रामक बीमारियों की सौगात बन गई हैं।
नदियों का पुनर्जीवन राजनीतिक रूप से जोख़िमभरा मामला बन गया है। पर्यावरण के लिहाज से काफी बुरा असर पड़ने के बावजूद कोई भी पनबिजली परियोजनाओं का विरोध करने की स्थिति में नहींं है। लेकिन, अगर हमें नदियों या दूसरे जल स्रोतों से अपनी प्यास बुझानी है तो इस दिशा में भारी अनुशासन की जरूरत है।
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