Hindi, asked by hanumantraut2001, 2 months ago

हॉकी खेलती लडकीया कविता मे व्यक्त
स्त्री विवश लिखीय

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Answered by Anonymous
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Answer:

आज शुक्रवार का दिन है

और इस छोटे से शहर की ये लड़कियाँ

खेल रही हैं हॉकी।

खुश हैं लड़कियाँ

फिलहाल

खेल रही हैं हॉकी

कोई डर नहीं।

बॉल के साथ दौड़ती हुई

हाथों में साधे स्टिक

वे हरी घास पर तैरती हैं

चूल्हे की आँच से

मूसल की धमक से

दौड़ती हुई

बहुत दूर आ जाती हैं।

वहाँ इंतज़ार कर रहे हैं

उन्हें देखने आए हुए वर पक्ष के लोग

वहाँ अम्मा बैठी राह तकती है

कि बेटियाँ आएं तो

संतोषी माता की कथा सुनाएं

और

वे अपना व्रत तोड़ें।

वहाँ बाबूजी प्रतीक्षा कर रहे हैं

दफ्तर से लौटकर

पकौड़ी और चाय की

वहाँ भाई घूम-घूम कर लौट आ रहा है

चौराहे से

जहाँ खड़े हैं मुहल्ले के शोहदे

रोज़ की तरह

लड़कियाँ हैं कि हॉकी खेल रही हैं।

लड़कियाँ

पेनाल्टी कार्नर मार रही हैं

लड़कियाँ

पास दे रही हैं

लड़कियाँ

'गो...ल- गो...ल' चिल्लाती हुई

बीच मैदान की ओर भाग रही हैं।

लड़कियाँ

एक-दूसरे पर ढह रही हैं

एक-दूसरे को चूम रही हैं

और हँस रही हैं।

Answered by brajmannayak
1

Answer:

आज शुक्रवार का दिन है

और इस छोटे से शहर की ये लड़कियाँ

खेल रही हैं हॉकी।

खुश हैं लड़कियाँ

फिलहाल

खेल रही हैं हॉकी

कोई डर नहीं।

बॉल के साथ दौड़ती हुई

हाथों में साधे स्टिक

वे हरी घास पर तैरती हैं

चूल्हे की आँच से

मूसल की धमक से

दौड़ती हुई

बहुत दूर आ जाती हैं।वहाँ इंतज़ार कर रहे हैं

उन्हें देखने आए हुए वर पक्ष के लोग

वहाँ अम्मा बैठी राह तकती है

कि बेटियाँ आएं तो

संतोषी माता की कथा सुनाएं

और

वे अपना व्रत तोड़ें।

वहाँ बाबूजी प्रतीक्षा कर रहे हैं

दफ्तर से लौटकर

पकौड़ी और चाय की

वहाँ भाई घूम-घूम कर लौट आ रहा है

चौराहे से

जहाँ खड़े हैं मुहल्ले के शोहदे

रोज़ की तरह

लड़कियाँ हैं कि हॉकी खेल रही हैं।

लड़कियाँ

पेनाल्टी कार्नर मार रही हैं

लड़कियाँ

पास दे रही हैंलड़कियाँ

'गो...ल- गो...ल' चिल्लाती हुई

बीच मैदान की ओर भाग रही हैं।

लड़कियाँ

एक-दूसरे पर ढह रही हैं

एक-दूसरे को चूम रही हैं

और हँस रही हैं।

लड़कियाँ फाउल खेल रही हैं

लड़कियों को चेतावनी दी जा रही है

और वे हँस रही हैं

कि यह ज़िन्दगी नहीं है

-इस बात से निश्चिंत हैं लड़कियाँ

हँस रही हैं

रेफ़री की चेतावनी पर।

लड़कियाँ

बारिश के बाद की

नम घास पर फिसल रही हैं

और गिर रही हैं

और उठ रही हैं

वे लहरा रही हैं

चमक रही हैं

और मैदान के अलग-अलग मोर्चों में

रह-रहकर उमड़-घुमड़ रही हैं।

वे चीख़ रही हैं

सीटी मार रही हैं

और बिना रुके भाग रही हैं

एक छोर से दूसरे छोर तक।

उनकी पुष्ट टांगें चमक रही हैंनृत्य की लयबद्ध गति के साथ

और लड़कियाँ हैं कि निर्द्वन्द्व निश्चिन्त हैं

बिना यह सोचे कि

मुँह दिखाई की रस्म करते समय

सास क्या सोचेगी।

इसी तरह खेलती रहती लड़कियाँ

निस्संकोच-निर्भीक

दौड़ती-भागती और हँसती रहतीं

इसी तरह

और हम देखते रहते उन्हें।

पर शाम है कि होगी ही

रेफ़री है कि बाज नहीं आएगा

सीटी बजाने से

और स्टिक लटकाये हाथों में

एक भीषण जंग से निपटने की

तैयारी करती लड़कियाँ लौटेंगी घर।

अगर ऐसा न हो तो

समय रुक जाएगा

इन्द्र-मरुत-वरुण सब कुपित हो जाएंगे

वज्रपात हो जाएगा, चक्रवात आ जाएगा

घर पर बैठे

देखने आए वर पक्ष के लोग

पैर पटकते चले जाएंगे

बाबूजी घुस आएंगे गरजते हुए मैदान में

भाई दौड़ता हुआ आएगा

और झोंट पकड़कर घसीट ले जाएगा

अम्मा कोसेगी-

'किस घड़ी में पैदा किया था

ऐसी कुलच्छनी बेटी को!'

बाबूजी चीखेंगे-

'सब तुम्हारा बिगाड़ा हुआ है !'

घर फिर एक अँधेरे में डूब जाएगा

सब सो जाएंगे

लड़कियाँ घूरेंगी अँधेरे में

खटिया पर चित्त लेटी हुईं

अम्मा की लम्बी साँसें सुनतीं

इंतज़ार करती हुईं

कि अभी वे आकर उनका सिर सहलाएंगी

सो जाएंगी लड़कियाँ

सपने में दौड़ती हुई बॉल के पीछे

स्टिक को साधे हुए हाथों में

पृथ्वी के छोर पर पहुँच जाएंगी

और 'गोल-गोल' चिल्लाती हुईं

एक दूसरे को चूमती हुईं

लिपटकर धरती पर गिर जाएंगी !

श्रेणियाँ:

कविता

स्त्री विमर्श

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