ही मुझे लगा मेरी दूसरी टाँग भी टूट गई ।
मुझसे मिलने के लिए सबसे पहले वे लोग आए जिनकी टाँग या कुछ
और टूटने पर मैं कभी उनसे मिलने गया था, मानो वे इसी दिन का इंतजार
कर रहे थे कि कब मेरी टाँग टूटे और कब वे अपना एहसान चुकाएँ । इनकी
हमदर्दी में यह बात खास छिपी रहती है कि देख बेटा, वक्त सब पर आता
है।
दर्द के मारे एक तो मरीज को वैसे ही नींद नहीं आती, यदि थोड़ी-बहुत
आ भी जाए तो मिलने वाले जगा देते हैं- खास कर वे लोग जो सिर्फ
औपचारिकता निभाने आते हैं। इन्हें परीज से हमदर्दी नहीं होती, ये सिर्फे
सूरत दिखाने आते हैं। ऐसे में एक दिन मैंने तय किया कि आज कोई भी आए,
मैं आँख नहीं खोलूँगा । चुपचाप पड़ा रहूँगा । ऑफिस के बड़े बाबू आए और
मुझे सोया जानकर वापस जाने के बजाय वे सोचने लगे कि यदि मैंने उन्हें नहीं
देखा तो कैसे पता चलेगा कि वे मिलने आए थे। अतः उन्होंने मुझे धीरे-धीरे
हिलाना शुरू किया । फिर भी जब आँखें नहीं खुली तो उन्होंने मेरी टाँग के
टूटे हिस्से को जोर से दबाया । मैंने दर्द के मारे कुछ चीखते हुए जब गाँव
खोली तो वे मुस्कराते हुए बोले- “कहिए, अब दर्द कैसा है ?"
मुहल्लेवाले अपनी फुरसत से आते हैं | उस दिन जब सोनाबाई अपने
चार बच्चों के साथ आई तो मुझे लगा कि आज फिर कोई दुर्घटना होगी।
आते ही उन्होंने मेरी ओर इशारा करते हुए बच्चों से कहा- "ये देखो चाचा
जी।' उनका अंदाज कुछ ऐसा था जैसे चिड़ियाघर दिखाते हुए बच्चों से
कहा जाता है- "ये देखो बंदर।"
बच्चे खेलने लगे। एक कुर्सी पर चढा तो दसरा मेज पर सोनाबाई की
छोटी लड़की दवा की शीशी लेकर कथकली डास करने लगी
स्प-ग्य की आवाज ने मेरा ध्यान बंटाया। क्या देखता हूँ कि सोनाबाई का एक
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सोनाबाई का एक लडका मेरी रेत से लटक रही टांग पर बॉक्सिंग प्रॅक्टिस करने लगा
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