Hindi, asked by bharathwaj6762, 11 months ago

‘हिमालय से’ कविता का सारांश - महादेवी वर्मा

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‘हिमालय से’ कविता महादेवी वर्मा द्वारा रचित ‘सांध्यगीत’ काव्य संग्रह से ली गई है। जिसमें उन्होंने हिमालय की सुंदरता तथा विशेषताओं का वर्णन किया है। कविता में महादेवी जी हिमालय की महानता का वर्णन करते हुए कहती हैं कि हे हिमालय! तुम दीर्घकालीन महान हो। तुम्हारे सफेद बर्फ से ढके पर्वतों पर जब सूर्य की किरणें पड़ती हैं तो वह तुम्हारी हँसी के समान दिखाई पड़ती हैं तथा बर्फ पर सूर्य की किरणें इंद्रधनुषी रंगों की पगड़ी के समान लगती हैं। ठंडी वायु तुम्हारे प्रत्येक अंग में सुगंध का लेपन करती है परंतु फिर भी तुम उदासीन वैरागी के समान हो। तुम आकाश में सिर ऊँचा किए खड़े हो, परंतु तुम्हारा हृदय इतना उदार है कि तुमने दीन-हीन मिट्टी को भी अपनी गोद में लिया हुआ है। तुम्हारा मन विश्व को तुम्हारे चरणों में झुका देखकर द्रवित हो जाता है। तुम जितने कोमल हो उतनी ही कठोरता को सहन करने की शक्ति रखते हो। हे हिमालय! तुम्हारी समाधि तो सैकड़ों तूफानों एवं झंझावतों के आने पर भी नहीं टूटती। तुच्छ धूल के जलते कणों की पुकार से तुम्हारी आँखों से करुणा के आँसू जल-धारा बनकर बहने लगती है। तुम सब सुखों से विरक्त हो एवं सुख व दु:ख में समान बने रहते हो। महादेवी जी भी अपने जीवन को हिमालय जैसा बनाना चाहती हैं। वह भी हिमालय के समान कठोर साधना शक्ति से पूर्ण एवं कोमल हृदय वाली बनना चाहती हैं। जिसके हृदय में करुणा का सागर हो तथा आँखों में ज्ञान की ज्योति जगमगाती रहे।

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हिमालय से’ कविता महादेवी वर्मा द्वारा रचित ‘सांध्यगीत’ काव्य संग्रह से ली गई है। जिसमें उन्होंने हिमालय की सुंदरता तथा विशेषताओं का वर्णन किया है। कविता में महादेवी जी हिमालय की महानता का वर्णन करते हुए कहती हैं कि हे हिमालय! तुम दीर्घकालीन महान हो। तुम्हारे सफेद बर्फ से ढके पर्वतों पर जब सूर्य की किरणें पड़ती हैं तो वह तुम्हारी हँसी के समान दिखाई पड़ती हैं तथा बर्फ पर सूर्य की किरणें इंद्रधनुषी रंगों की पगड़ी के समान लगती हैं। ठंडी वायु तुम्हारे प्रत्येक अंग में सुगंध का लेपन करती है परंतु फिर भी तुम उदासीन वैरागी के समान हो। तुम आकाश में सिर ऊँचा किए खड़े हो, परंतु तुम्हारा हृदय इतना उदार है कि तुमने दीन-हीन मिट्टी को भी अपनी गोद में लिया हुआ है। तुम्हारा मन विश्व को तुम्हारे चरणों में झुका देखकर द्रवित हो जाता है। तुम जितने कोमल हो उतनी ही कठोरता को सहन करने की शक्ति रखते हो। हे हिमालय! तुम्हारी समाधि तो सैकड़ों तूफानों एवं झंझावतों के आने पर भी नहीं टूटती। तुच्छ धूल के जलते कणों की पुकार से तुम्हारी आँखों से करुणा के आँसू जल-धारा बनकर बहने लगती है। तुम सब सुखों से विरक्त हो एवं सुख व दु:ख में समान बने रहते हो। महादेवी जी भी अपने जीवन को हिमालय जैसा बनाना चाहती हैं। वह भी हिमालय के समान कठोर साधना शक्ति से पूर्ण एवं कोमल हृदय वाली बनना चाहती हैं। जिसके हृदय में करुणा का सागर हो तथा आँखों में ज्ञान की ज्योति जगमगाती रहे।

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