Hindi, asked by shwetaku0101, 3 months ago

हिम और मेघ के बसेरे जहां पर कविता हिन्दी में​

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1

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1. हिंदी है भारत की बोलीदो वर्तमान का सत्‍य सरल,

सुंदर भविष्‍य के सपने दो

हिंदी है भारत की बोली

तो अपने आप पनपने दो

यह दुखड़ों का जंजाल नहीं,

लाखों मुखड़ों की भाषा है

थी अमर शहीदों की आशा,

अब जिंदों की अभिलाषा है

मेवा है इसकी सेवा में,

नयनों को कभी न झंपने दो

हिंदी है भारत की बोली

तो अपने आप पनपने दो

क्‍यों काट रहे पर पंछी के,

पहुंची न अभी यह गांवों तक

क्‍यों रखते हो सीमित इसको

तुम सदियों से प्रस्‍तावों तक

औरों की भिक्षा से पहले,

तुम इसे सहारे अपने दो

हिंदी है भारत की बोली

तो अपने आप पनपने दो

श्रृंगार न होगा भाषण से

सत्‍कार न होगा शासन से

यह सरस्‍वती है जनता की

पूजो, उतरो सिंहासन से

इसे शांति में खिलने दो

संघर्ष-काल में तपने दो

हिंदी है भारत की बोली

तो अपने आप पनपने दो

जो युग-युग में रह गए अड़े

मत उन्‍हीं अक्षरों को काटो

यह जंगली झाड़ न, भाषा है,

मत हाथ पांव इसके छांटो

अपनी झोली से कुछ न लुटे

औरों का इसमें खपने दो

हिंदी है भारत की बोली

तो आपने आप पनपने दो

इसमें मस्‍ती पंजाबी की,

गुजराती की है कथा मधुर

रसधार देववाणी की है,

मंजुल बंगला की व्‍यथा मधुर

साहित्‍य फलेगा फूलेगा

पहले पीड़ा से कंपने दो

हिंदी है भारत की बोली

तो आपने आप पनपने दो

नादान नहीं थे हरिश्‍चंद्र,

मतिराम नहीं थे बुद्ध‍िहीन

जो कलम चला कर हिंदी में

रचना करते थे नित नवीन

इस भाषा में हर ‘मीरा’ को

मोहन की माल जपने दो

हिंदी है भारत की बोली

तो अपने आप पनपने दो

प्रतिभा हो तो कुछ सृष्‍ट‍ि करो

सदियों की बनी बिगाड़ो मत

कवि सूर बिहारी तुलसी का

यह बिरुवा नरम उखाड़ो मत

भंडार भरो, जनमन की

हर हलचल पुस्‍तक में छपने दो

हिंदी है भारत की बोली

तो अपने आप पनपने दो

मृदु भावों से हो हृदय भरा

तो गीत कलम से फूटेगा

जिसका घर सूना-सूना हो

वह अक्षर पर ही टूटेगा

अधिकार न छीनो मानस का

वाणी के लिए कलपने दो

हिंदी है भारत की बोली

तो अपने आप पनपने दो

बढ़ने दो इसे सदा आगे

हिंदी जनमत की गंगा है

यह माध्‍यम उस स्‍वाधीन देश का

जिसकी ध्‍वजा तिरंगा है

हों कान पवित्र इसी सुर में

इसमें ही हृदय तड़पने दो

हिंदी है भारत की बोली

तो अपने आप पनपने दो

2. इस रिमझिम में चाँद हँसा है1.

खिड़की खोल जगत को देखो,

बाहर भीतर घनावरण है

शीतल है वाताश, द्रवित है

दिशा, छटा यह निरावरण है

मेघ यान चल रहे झूमकर

शैल-शिखर पर प्रथम चरण है!

बूँद-बूँद बन छहर रहा यह

जीवन का जो जन्म-मरण है!

जो सागर के अतल-वितल में

गर्जन-तर्जन है, हलचल है;

वही ज्वार है उठा यहाँ पर

शिखर-शिखर में चहल-पहल है!

2.

फुहियों में पत्तियाँ नहाई

आज पाँव तक भीगे तरुवर,

उछल शिखर से शिखर पवन भी

झूल रहा तरु की बाँहों पर;

निद्रा भंग, दामिनी चौंकी,

झलक उठे अभिराम सरोवर,

घर के, वन के, अगल-बगल से

छलक पड़े जल स्रोत मचलकर!

हेर रहे छवि श्यामल घन ये

पावस के दिन सुधा पिलाकर

जगा रहा है जड़ को चेतन

जग-जीवन में बुला-जिलाकर!

3.

जागो मेरे प्राण, विश्व की

छटा निहारो भोर हुई है

नभ के नीचे मोती चुन-चुन

नन्हीं दूब किशोर हुई है

प्रेम-नेम मतवाली सरिता

क्रम की और कठोर हुई है,

फूट-फूट बूँदों से श्यामा

रिमझिम चारों ओर हुई है.

निर्झर, झर-झर मंगल गाओ,

आज गर्जना घोर हुई है;

छवि की उमड़-घुमड़ में कवि को

तृषित मानसी मोर हुई है.

4.

दूर-दूर से आते हैं घन

लिपट शैल में छा जाते हैं

मानव की ध्वनि सुनकर पल में

गली-गली में मंडराते हैं

जग में मधुर पुरातन परिचय

श्याम घरों में घुस आते हैं,

है ऐसी हीं कथा मनोहर

उन्हें देख गिरिवर गाते हैं!

ममता का यह भीगा अंचल

हम जग में फ़िर कब पाते हैं

अश्रु छोड़ मानस को समझा

इसीलिए विरही गाते हैं!

5.

सुख-दुःख के मधु-कटु अनुभव को

उठो ह्रदय, फुहियों से धो लो,

तुम्हें बुलाने आया सावन,

चलो-चलो अब बंधन खोलो

पवन चला, पथ में हैं नदियाँ,

उछल साथ में तुम भी हो लो

प्रेम-पर्व में जगा पपीहा,

तुम कल्याणी वाणी बोलो!

आज दिवस कलरव बन आया,

केलि बनी यह खड़ी निशा है;

हेर-हेर अनुपम बूँदों को

जगी झड़ी में दिशा-दिशा है!

6.

बूँद-बूँद बन उतर रही है

यह मेरी कल्पना मनोहर,

घटा नहीं प्रेमी मानस में

प्रेम बस रहा उमड़-घुमड़ कर

भ्रान्ति-भांति यह नहीं दामिनी,

याद हुई बातें अवसर पर,

तर्जन नहीं आज गूंजा है

जड़-जग का गूंजा अभ्यंतर!

इतने ऊँचे शैल-शिखर पर

कब से मूसलाधार झड़ी है;

सूखे वसन, हिया भींगा है

इसकी चिंता हमें पड़ी है!

7.

बोल सरोवर इस पावस में,

आज तुम्हारा कवि क्या गाए,

कह दे श्रृंग सरस रूचि अपनी,

निर्झर यह क्या तान सुनाए;

बाँह उठाकर मिलो शाल, ये

दूर देश से झोंके आए

रही झड़ी की बात कठिन यह,

कौन हठीली को समझाए!

अजब शोख यह बूँदा-बाँदी,

पत्तों में घनश्याम बसा है

झाँके इन बूँदों से तारे,

इस रिमझिम में चाँद हँसा है!

8.

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