हँसै न बोलै उनमनी, चंचल मेल्ह्या मारि।
कहै कबीर भीतरि भिद्या, सतगुर कै हथियार।।
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हँसै न बोलै उनमनी, चंचल मेल्ह्या मारि।
कहै कबीर भीतरि भिद्या, सतगुर कै हथियार।।
अर्थात कबीरदास जी कहते हैं कि सतगुरु के शब्द रूपी बाणों शरीर को भीतर तक बेध दिया है, इससे मन की सारी चंचलता नष्ट हो गई। वह समाधि की एक ऐसी अवस्था में पहुंच गए हैं, जहां मन में सांसारिक विषय वासनाओं के प्रति पूर्णता उदासीनता का भाव आ गया है। मन एक अलौकिक परमानंद में लीन हो गया है। इंद्रियों के संवेदन की स्थिरता के कारण हंसना-बोलना भी बंद हो गया है।
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कबीरदास जी कहते हैं कि सतगुरु के शब्द रूपी बाणों शरीर को भीतर तक बेध दिया है, इससे मन की सारी चंचलता नष्ट हो गई। वह समाधि की एक ऐसी अवस्था में पहुंच गए हैं, जहां मन में सांसारिक विषय वासनाओं के प्रति पूर्णता उदासीनता का भाव आ गया है। मन एक अलौकिक परमानंद में लीन हो गया है। इंद्रियों के संवेदन की स्थिरता के कारण हंसना-बोलना भी बंद हो गया है।
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