हिंसा परमो धर्म- कहानी के प्रमुख पात्र जाहिद और काजी के चरीत्र का तुलनात्मक विश्लेषण कीजिए|
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दुनिया में कुछ ऐसे लोग होते हैं, जो किसी के नौकर न होते हुए सबके नौकर होते हैं, जिन्हें कुछ अपना काम न होने पर भी सिर उठाने की फ़ुर्सत नहीं होती। जामिद इसी श्रेणी के मनुष्यों में था। बिल्कुल बेफ़िक्र, न किसी से दोस्ती, न किसी से दुश्मनी। जो ज़रा हँसकर बोला, उसका बेदाम का गुलाम हो गया। बेकाम का काम करने में उसे मज़ा आता था। गाँव में कोई बीमार पड़े, वह रोगी की सेवा-सुश्रुषा के लिए हाज़िर है। कहिए तो आधी रात हकीम के घर चला जाए, किसी जड़ी-बूटी की तलाश में जंगलों की ख़ाक छान आए। मुमकिन न था कि किसी ग़रीब पर अत्याचार होते देखे और चुप रह जाए। फिर चाहे कोई उसे मार ही डाले, वह हिमायत करने से बाज न आता था। ऐसे सैकड़ों ही मौके उसके सामने आ चुके थे। कांस्टेबल से आए दिन ही उसकी छेड़-छाड़ होती रहती थी। इसलिए लोग उसे बौड़म समझते थे। और बात भी यही थी। जो आदमी किसी का बोझ भारी देखकर उससे छीन कर, अपने सिर ले ले, किसी का छप्पर उठाने या आग बुझाने के लिए कोसों दौड़ा चला जाए , उसे समझदार कौन कहेगा। सारांश यह है कि उसकी जात से दूसरों को चाहे कितना ही फ़ायदा पहुँचे, अपना कोई उपकार न होता था, यहाँ तक कि वह रोटियों तक के लिए भी दूसरों का मुहताज था। दीवाना तो वह था और उसका गम दूसरे खाते थे।