हँसते-खिलखिलाते रंग-बिरंगे फूल।
क्यारी में देखकर जी तृप्त हो गया। ।
नथुनों से प्राणों तक खिंच गई
गंध की लकीर-सी।
आँखों में हो गई रंगों की बरसात।
अनायास कह उठा वाह!
धन्य है वसंत ऋतु!
लौटने को पैर ज्यों बढ़ाए तो
क्यारी के कोने में दुबका
एक नन्हा फूल अचानक बोल पड़ा- सुनो!
एक छोटा-सा सत्य तुम्हें सौंपता हूँ
धन्य है वसंत ऋतु, ठीक है,
पर उसकी धन्यता, उसकी कमाई नहीं,
वह हमने रची है,
हमने यानी मैंने
मुझ
जैसे मेरे अनगिनत साथियों ने-
जिन्होंने इस क्यारी में अपने-अपने ठाँव
पर
धूप और बरसात, जाड़ा और पाला झेल
सूरज को तपा है पूरी आयु एक पाँव पर।
तुमने ऋतु को बखाना,
पर क्या कभी पलभर भी
तुम उस लौ को भी देख सके जिसके बल पर
मैंने और इसने और उसने यानी मेरे एक-एक साथी ने
मिट्टी का अँधेरा फोड़
सूरज से आँखें मिलाई हैं।
उसे यदि जानते, तो तुमसे भी रँग जाती एक ऋतु।
क . कवि के मुंह से अनायास 'वाह 'क्यों निकल गया
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CANT UNDERSTAND YOUR QUESTION DUDE !
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thnx it was ache poem ke liye
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