हाथों हाथ बिक जाना उदित को सिद्ध करते हुए कहानी लिखें
Answers
Explanation:
अपने एक लेख में प्रेमचंद बताते हे की जीवन में साहित्य का क्या महत्व हे ? क्या स्थान हे क्यों हे ? आज की भागती दौड़ती जिंदगी में इंसान किसी चीज़ से सबसे ज़्यादा दूर हो रहा हे तो साहित्य भी हे इसके दुष्परिणाम भी साफ़ तौर पर देखे जा सकते हे लोगो की अच्छा कहने सुनने की एक दुसरे को समझने की रोचक बातचीत की क्षमता कम हो रही हे कारण साफ़ हे की दिमाग और मन दोनों की ही खुराक पढ़ना और साहित्य होता ही हे टी वी इंटरनेट और दुसरे माध्यम जीवन में साहित्य का स्थान बिलकुल नहीं ले सकते हे प्रेमचंद बड़े ही सुन्दर शब्दों में बताते हे की जीवन में साहित्य का क्या महत्व हे ?
”साहित्य का आधार जीवन हे इसी नीव पर साहित्य की दीवार कड़ी होती हे उसकी अटारिया मीनार और गुम्बंद बनते हे लेकिन बुनियाद मिटटी के नीचे दबी पड़ी हे उसे देखने का भी जी नहीं चाहेगा जीवन परमात्मा की सर्ष्टि हे इसलिए अंनत हे , अगम्य हे साहित्य मनुष्य की सर्ष्टि हे इसलिए सुबोध हे सुगम और मर्यादा से परिमित हे जीवन परमात्मा को अपने कामो का जवाबदेह हे या नहीं , हमें मालूम नहीं लेकिन साहित्य तो मनुष्य के सामने जवाबदेह हे इसके लिए कानून हे जिससे वह इधर उधर नहीं हो सकता हे ”
”जीवन का उद्देश्य ही आनंद हे मनुष्य जीवन पर्यन्त आनंद की खोज में लगा रहता हे किसी को वह रत्न द्र्वय धन से मिलता हे किसी को भरे पुरे परिवार से किसी को लम्बा चौड़े भवन से , किसी को ऐश्वर्य से , लेकिन साहित्य का आनंद इस आनंद से ऊँचा हे , इससे पवित्र हे , उसका आधार सुन्दर और सत्य हे वास्तव में सच्चा आनंद सुन्दर और सत्य से मिलता हे उसी आनंद को दर्शाना वही आनंद उत्पन्न करना साहित्य का उद्देशय हे , ऐश्वर्य आनंद में ग्लानि छिपी होती हे . उससे अरुचि हो सकती हे पश्चाताप की भावना भी हो सकती हे पर सुन्दर से जो आनंद प्राप्त होता हे वह अखंड अमर हे .” ” जीवन क्या हे – ? जीवन केवल जिन खाना सोना और मर जाना नहीं हे . यह तो पशुओ का जीवन हे मानव जीवन में भी यही सब प्रवृत्तियाँ होती हे क्योकि वह भी तो पशु हे पर उसके उपरांत कुछ और भी होता हे उसमे कुछ ऐसी मनोवृत्तियां होती हे जो प्रकर्ति के साथ हमारे मेल में बाधक होती हे जो इस मेल में सहायक बन जाती हे जिन प्रवृत्तियाँमें प्रकर्ति के साथ हमारा सामंजस्य बढ़ता हे वह वांछनीय होती हे जिनमे सामंजस्य में बाधा उत्पन्न होती हे , वे दूषित हे . अहंकार क्रोध या देष हमारे मन की बाधक प्रवृत्तियाँ हे . यदि हम इन्हे बेरोकटोक चलने दे तो निसंदेह वो हमें नाश और पतन की और ले जायेगी इसलिए हमें उनकी लगाम रोकनी पड़ती हे उन पर सायं रखना पड़ता हे . जिससे वे अपनी सीमा से बाहर न जा सके हम उन पर जितना कठोर संयम रख सकते हे उतना ही मंगलमय हमारा जीवन हो जाता हे ”