Hindi, asked by sainikanika964, 7 months ago

हिंदी का घटता प्रभाव ​

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Answered by BlessyThomas
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हिंदी का भी ग्राफ़ काफ़ी रोमांचक रहा है। पहले पहल तो हिंदी उर्दू संग चल समाज में एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान बनाने लगे। और उसके बाद फिर आया वो दौर जब जम के लेखकों और कवियों ने ऐसे ऐसे महाकाव्यों और गद्य खंडो की रचना की, कि एक हिंदी पौराणिक भारत की तरह सोने की चिड़िया हो गयी।

पर धीरे धीरे यह सूरज अस्त होने लगा। हिंदी चिड़िया अंग्रेज़ी के अंधकार में कहीं खो गयी और उड़ना भूल गयी, उस वक़्त भी कुछ विशिष्ट महामानवों ने इस चिड़िया के पंखों को निखारा। पर फिर वही, समाज का वो एक तबक़ा अंग्रेज़ी को हाई क्लास से जोड़ने लग गया और हिंदी को लो क्लास से। और उस वक़्त हिंदी का ग्राफ़ औंधे मुँह नीचे गिरने लगा। फिर लोगों को मुक्तिबोध और अज्ञेय से ज़्यादा कामु की ज़्यादा ट्रेंडिंग लगने लगी। (मैं कामु की रचना को कहीं कम नहीं आंक रहा हूँ, मुझे भी इनके लेख और कहानियाँ बहुत पसंद है )। तो इस ट्रेंड को पकड़ने के चक्कर में हिन्दी खोती चली गयी, और लोगों को हिन्दी पखवाड़ा, हिंदी दिवस, कार्यकालिक हिंदी की अनिवार्यता इत्यादि करने की ज़रूरत पड़ने लग गयी।

परंतु, बाद में फिर से, जैसे पुनर्जन्म होना शुरू हुआ, और यह पुनर्जन्म बस पिछले कुछ सालों से शुरू हुआ है। यह पुनर्जन्म हुआ है हमारी पीढ़ी से, यह पीढ़ी जो नब्बे के दशक में आए, जिन्होंने ने बीपीएल , उप्रोन्न टीवियों को कयी हज़ारों में ख़रीदते हुए देखा है और कौड़ियों के भाव बिकते हुए भी देखा है। जिन्होंने रेडीओ पर भी मैच सुना है और एलसीडी स्क्रीन पे भी पोप कॉर्न के साथ मैच का लुत्फ़ उठाया है। ये वही पीढ़ी है जिन्होंने पहचाना है कि, मियाँ इश्क़ करना है तो उर्दू सीखिए और उर्दू सीखना है तो इश्क़ कर लीजिए। यही वो पीढ़ी है जिसने वापस से भारत को यह पहचान करायी कि दिनकर की पंक्तियाँ आक्रोश लाने में और बच्चन की पंक्तियाँ आशा लाने के लिए सबसे उत्कृष्ट हैं।

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