हिंदी की कला नीच और प्रतिभा से आप क्या समझते हैं
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प्रतिभा वह शक्ति है, जो किसी व्यक्ति को काव्य की रचना में समर्थ बनाती है। काव्य हेतु में प्रतिभा को सर्वाधिक महत्व दिया गया है। विवाह के महत्व के बारे में भट्टतौत जी कहते हैं कि
" प्रज्ञा नोवनवोन्मेष शालिनी प्रतिभा माता।"
अर्थात, "प्रतिभा उस प्रज्ञा का नाम है जो नित्य नवीन रासानुकूल विचार उत्पन्न करती है ।"
इस तरह आचार्य वामन जी ने भी प्रतिभा को जन्मजात संस्का मानते हुए काव्य रचना का अनिवार्य गुण माने हैं। तो वहीं महिम भट्ट ने प्रतिभा को कवि का तीसरा नेत्र मानते हैं, जिससे समस्त भाव का साक्षात्कार होता है। आचार्य कुंतक प्रतिभा उस शक्ति को माने हैं, जो शब्द और अर्थ में अपूर्व सौंदर्य की रचना करता है। राजशेखर जी ने काव्य में प्रतिभा को महत्व देते हुए इसके दो रूप माने हैं- (१) कारयित्री (२) भावयित्री।
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