Hindi, asked by rkrajkumar7654321, 9 months ago

हिंदी के प्रचार प्रसार में साधु संतों, समाज सुधारकों की भूमिका पर विचार प्रकट कीजिये?

Answers

Answered by anoopjangra83
1

hindi ke prachar prasar me sadhu santo samaj sudharko ki bhumika par vichar prakat kigiye

Explanation:

Answered by jayathakur3939
3

उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में भावनात्मक संदर्भ की क्रांति शुरू हुई।

उस समय देश की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति अत्यन्त दयनीय हो चुकी थी। देश में होने वाले आन्दोलनों से जन-जीवन प्रभावित हो रहा था। भारत की राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय आन्दोलन के लिए एक भाषा की आवश्यकता सामने आई।

राष्ट्रीय भावना जगाने हेतु हिन्दी को संपर्क भाषा

के रूप में प्रयोग किया गया। विभिन्न व्यक्तियों और संस्थानों द्वारा हिंन्दी-प्रयोग हेतु आन्दोलन के रूप में कार्य किया गया। बिहार ने सबसे पहले अपनाई थी हिंदी को, बनाई थी राज्य की अधिकारिक भाषा बिहार देश का पहला ऐसा राज्य है, जिसने सबसे पहले हिंदी को अपनी अधिकारिक भाषा माना है।

लोकमान्य तिलक जी  के विचार :-

लोकमान्य तिलक जीवन भर हिंन्दी के प्रचार-प्रसार में लगे हुए थे। उन्होने हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में अपनाने के लिए बार-बार आग्रह किया था। प्रारंभ में परम विनम्र नेता थे। परिस्थितियों ने उन्हें ओजस्वी नेता बना दिया। ”स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है“ का नारा देने वाले तिलक ‘स्वदेशी’ के प्रबल समर्थक थे। उनकी मान्यता थी कि हिन्दी ही एकमात्र ऐसी भाषा है, जो राष्ट्रभाषा की पदाधिकारी है।  हिन्दी राष्ट्रभाषा बन सकती है मेरी समझ में हिन्दी भारत की सामान्य भाषा होनी चाहिए, यानी समस्त हिन्दुस्तान में बोली जाने वाली भाषा होनी चाहिए।“लोकमान्य तिलक देवनागरी को ‘राष्ट्रलिपि’ और हिंदी को ‘राष्ट्रभाषा’ मानते थे। उन्होंने जनसामान्य तक अपने विचार पहुँचाने के लिए ‘हिन्दी केसरी’ साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन किया। हिन्दी का यह पत्र पर्याप्त लोकप्रिय हुआ।

महात्मा गाँधी  जी के विचार :-

सन् 1918 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के इन्दौर के अधिवेशन में हिन्दी-प्रेम प्रकट करते हुए आह्नान किया था :आप हिन्दी को भारत का राष्ट्रभाषा बनाने का गौरव प्रदान करें। हिन्दी सब समझते हैं। इसे राष्ट्रभाषा बनाकर हमें अपना कर्तव्य-पालन करना चाहिए।“ भारत वर्ष में शिक्षा के माध्यम पर दो-टूक चर्चा करते हए गाँधी जी ने 2 सितम्बर, 1921 को कहा था-अगर मेरे हाथों में तानाशाही सत्ता हो, तो मैं आज से ही विदेशी माध्यम के जरिए हमारे लड़के-लड़कियों की शिक्षा बन्द कर दूँ और सारे शिक्षकों और प्रोफेसरों से यह माध्यम तुरन्त बदलवा दूँ।“ गाँधी जी की दृष्टि में हिन्दी ही भारत की संपर्क भाषा के रूप में आदर्श भूमिका निभा सकती है।

काका कालेलकर जी  के विचार :-

इन्होंने हिन्दी के प्रचार और प्रसार में समर्पित होकर कार्य किया हैं उन्होंने राष्ट्रभाषा प्रचार समिति से जुड़कर और गुजरात में रहकर हिन्दी-प्रसार को नई दिशा प्रदान की है।

हिन्दी के प्रचार-प्रसार में अहिंदी भाषियों का नाम गौरव से लिया जाता है। ऐसे हिन्दी-प्रेमियों में काका कालेलकर का नाम विशेष श्रद्धा से लिया जाता है। उन्होंने कभी अंग्रेजी का विरोध नहीं किया, किन्तु प्रादेशिक भाषाओं और हिन्दुस्तानी के प्रबल हिमायती थे। यह निर्विवाद सत्य है कि काका कालेलकर ‘हिन्दुस्तानी’ के समर्थक थे। उस समय हिन्दुस्तानी का अर्थ था - हिंदी और उर्दू का मिश्रित रूप। अंग्रेजों के शासन और अंग्रेजी के शासन और अंग्रेजी के प्रभाव में ‘हिन्दुस्तान’ के प्रसार से हिंदी को ही लाभ हुआ है। इससे जन सामान्य में हिंदी के प्रति अनुराग विकसित हुआ है। गाँधी जी के अनुयायी काका कालेलकर का नाम हिंदी-आंदोलन के संदर्भ में सदा याद किया जाएगा।

लाला लाजपतराय जी के विचार :-

पंजाब में हिन्दी प्रचार-प्रसार में लाला लाजपतराय की बलवती भूमिका थी। उन्होंने सन् 1911 में पंजाब शिक्षा संघ की स्थापना की। शिक्षा में हिन्दी को समुचित स्थान दिलाने का सराहनीय प्रयास किया। सन् 1886 में लाहौर में दयानन्द ऐंग्लो-वैदिक कॉलेज की स्थापना की गई। इससे हिन्दी प्रसार का सुदृढ़ आधार मिला। इस कॉलेज में सभी विद्यार्थियों को हिन्दी पढ़ने की अनिवार्यता थी। लाला लाजपतराय के प्रयास से पंजाब विश्वविद्यालय में हिन्दी को सम्मानीय स्थान मिला। उन्हीं का प्रयास था कि पंजाब विश्वविद्यालय में रत्न और प्रभाकर के माध्यम से हिन्दी को पाठ्यक्रम में स्थान मिला।

आर्य समाज

भारतवर्ष के सामाजिक और धार्मिक आन्दोलनों में आर्य समाज का स्थान सर्वोपरि है। आर्य समाज की स्थापना 1875 ई. में, बम्बई में स्वामी दयानन्द द्वारा समाजोत्थान के लिए की गई थी। आर्य समाज द्वारा पूरे देश में स्वराज, धर्म और हिंदी भाषा के लिए आन्दोलन किया गया। आर्य समाज के आन्दोलनकारी हिंदी को ‘आर्यभाषा’ नाम से संबोधित कर अपना सारा कार्य इसमें ही करते थे। आर्य समाज के 28 नियमों में पाँचवां नियम हिंदी पढ़ना था। आर्य समाज के बढ़ते कदम लाहौर पहुँचे और 24 जनवरी, 1877 को लाहौर में आर्य समाज की स्थापना हुई। आर्य समाज का सत्संग और सम्मेलन हिंदी में ही होता था। इसलिए हिंदी-प्रसार को सुन्दर आधार मिला।

सनातन धर्म

सभा के माध्यम से देश के विभिन्न प्रदेशों में शिक्षण संस्थाएँ शुरू हो गई। इनमें हिन्दी को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया। उत्तर भारत क्षेत्र में इस को आशातीत सफलता मिली। पं. मदन मोहन मालवीय के प्रिय शिष्य गास्वामी गणेश दत्त इस सभा के कर्णधार थे। उन्होंने सर्वप्रथम लायलपुर में एक गुरूकुल की स्थापना की। इसमें संस्कृत-हिंदी अध्ययन-अध्यापन व्यवस्था थी। इसके पश्चात् सैंकड़ों संस्थाएँ खुली। इससे पंजाब में हिंदी का व्यापक प्रचार हुआ।

गोस्वामी गणेश दत्त  के साथ हिंदी-प्रसार में योगदान देने वालों में श्रद्धाराम फिल्लौरी का नाम विशेष आदर से लिया जाता है।

साहित्यिक संस्थाएँ

भारतवर्ष एक लम्बे समय तक दासता की बेड़ी में जकड़ा रहा। हिन्दी के प्रचार-प्रसार हेतु समय-समय पर अनेक साहित्यिक संस्थाओं की स्थापना होती रहती है।

Similar questions