हिंदी की उपेक्षा के दुष्परिणाम essay
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हिंदी की उपेक्षा के दुष्परिणाम
यह कितना विरोधाभाष है कि एक ओर तो हम हिंदी को संयुक्त राष्ट्रसंघ में मान्यता दिलाना चाहते है दूसरी ओर हमारे देश में ही उसकी दुर्गति हो रही है। अभी उत्तर प्रदेश पीसीएस मुख्य परीक्षा का परिणाम आया है। इसमें शर्मनाक बात यह है कि 450 प्रतिभागी हिंदी विषय में फेल हैं। यह स्थिति अत्यंत निराशाजनक ही नहीं अपितु हमारी शिक्षा प्रणाली को भी सवालों के घेरे में खड़ा करती है। जिस प्रदेश ने हिंदी को समूचे विश्व को परिचित कराया। प्रदेश की सरकारी काम-काज की भाषा हिंदी है फिर इसी विषय में कुल प्रतिभागियों में से 10 फीसदी का अनुत्तीर्ण होना हमारी दिशाहीनता को इंगित करता है। इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि मुख्य परीक्षा में अधिकांश सफल प्रतियोगियों के हिंदी में नम्बर भी केवल पास लायक ही होंगे। युवाओं को इस वास्तविकता से परिचित होना चाहिए कि प्रशासन में आने के लिए हिंदी का ज्ञान आवश्यक ही नहीं अपितु अनिवार्य है। केवल अंग्रेजी रटने से वह प्रशासनिक सेवाओं में कभी नहीं आ सकते। यहां के लोगों की मातृभाषा भी हिंदी है। अतः इस भाषा में फिसड्डी रहना शिक्षा जगत के गाल पर तमाचा है। इस स्थिति के लिए कौेन जिम्मेदार है ? जिस भाषा को हमने मां की घुट्टी के रूप में प्राप्त किया है! उसमें हमारी कमजोरी दर्शाती हैे कि शिक्षा जगत अपने कर्तव्यों का सही ढंग से पालन नहींे कर पा रहा है। जब प्रतियोगी हिंदी में ही फेल हैं तो उनके इतिहास, गणित, विज्ञान आदि अन्य विषयों में योग्य होने की उम्मीद करना बेकार है। इस स्थिति के लिए सरकार के साथ अभिभावक भी अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकते। उन पर अंग्रेजी का ऐसा भूत सवार हुआ है कि वह अपने बच्चों को कुकुरमुत्तों की तरह उगे कथित इंग्लिश मीडियम स्कूलों में प्रवेश कराकर गर्व का अनुभव करता है। बच्चा स्कूल में अधकचरे शिक्षकों से अंग्रेजी पढ़ता है और घर आकर हिंदी के वातावरण में चहलकदमी करने लगता है। इस विरोधाभास का दुष्परिणाम यह होता है कि बच्चा न तो अंग्रेजी भाषा में प्रवीणता प्राप्त कर पाता है और अंग्रेजी के चक्कर में अपनी मातृभाषा को भी भूल जाता है। इसका खामियाजा उसे आगे चलकर भोगना पड़ता है। हम वर्तमान परिप्रेक्ष्य की अनदेखी नहीं कर सकते कि अंग्रेजी विश्वभाषा का रूप धारण करती जा रही है। लेकिन हिंदी की कीमत पर विदेशी भाषा को आत्मसात करना न तो ज्ञान के लिए उचित है और न ही विज्ञान के लिए। हर व्यक्ति में विचार का प्रादुर्भाव उसकी अपनी भाषा में होता है। उसकी मेधा और ऊर्जा भाषा से ही प्रेरित और प्रभावित होती है। हिंदी की यह उपेक्षा केवल शिक्षा जगत में ही नहीं अपितु सभी जगह अपने पांव पसार चुकी है। मातृभाषा के अभाव में हमारा चिंतन मौलिक नहीं होता। जब चिंतन मौलिक नहीं होगा तो हम किस प्रकार नये अनुसंधान और शोध कर पायेंगे।
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