Hindi, asked by arshadansari97, 7 months ago

हिंदी कथा साहित्य में प्रेमचंद के योगदान​

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Answered by premkumarsahjlan1971
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Answer:

प्रेमचंद उनका साहित्यिक नाम था और बहुत वर्षों बाद उन्होंने यह नाम अपनाया था। उनका वास्तविक नाम ‘ धनपत राय ’ था। जब उन्होंने सरकारी सेवा करते हुए कहानी लिखना आरम्भ किया , तब उन्होंने नवाब राय नाम अपनाया। बहुत से मित्र उन्हें जीवन - पर्यन्त नवाब के नाम से ही सम्बोधित करते रहे। जब सरकार ने उनका पहला कहानी - संग्रह , ‘ सोज़े वतन ’ ज़ब्त किया , तब उन्हें नवाब राय नाम छोड़ना पड़ा। बाद का उनका अधिकतर साहित्य प्रेमचंद के नाम से प्रकाशित हुआ। इसी काल में प्रेमचंद ने कथा - साहित्य बड़े मनोयोग से पढ़ना शुरू किया। एक तम्बाकू - विक्रेता की दुकान में उन्होंने कहानियों के अक्षय भण्डार , ‘ तिलिस्मे होशरूबा ’ का पाठ सुना। इस पौराणिक गाथा के लेखक फ़ैज़ी बताए जाते हैं , जिन्होंने अकबर के मनोरंजन के लिए ये कथाएं लिखी थीं। एक पूरे वर्ष प्रेमचंद ये कहानियाँ सुनते रहे और इन्हें सुनकर उनकी कल्पना को बड़ी उत्तेजना मिली। कथा साहित्य की अन्य अमूल्य कृतियाँ भी प्रेमचंद ने पढ़ीं। इनमें ‘ सरशार ’ की कृतियाँ और रेनाल्ड की ‘ लन्दन - रहस्य ’ भी थी। गोरखपुर में बुद्धिलाल नाम के पुस्तक - विक्रेता से उनकी मित्रता हुई। वे उनकी दुकान की कुंजियाँ स्कूल में बेचते थे और इसके बदले में वे कुछ उपन्यास अल्प काल के लिए पढ़ने को घर ले जा सकते थे। इस प्रकार उन्होंने दो - तीन वर्षों में सैकड़ों उपन्यास पढ़े होंगे। इस समय प्रेमचंद के पिता गोरखपुर में डाकमुंशी की हैसियत से काम कर रहे थे। गोरखपुर में ही प्रेमचंद ने अपनी सबसे पहली साहित्यिक कृति रची।

प्रेमचंद के साहित्य पर सर्वत्र शिव का शासन है – सत्य और सुंदर शिव के अनुचर होकर आते हैं। उनकी कला स्वीकृत रूप में जीवन के लिए थी और जीवन का अर्थ भी उनके लिए वर्तमान सामाजिक जीवन था। वे कभी वर्तमान से दूर नहीं गए। प्रेमचंद ने जीवन का गौरव राग नहीं गाया , न ही भविष् ‍ य की हैरत - अंगेज कल् ‍ पना की। उन्होंने न तो अतीत के गुण गाए और न ही भविष्य के मोहक सपनों का भ्रमजाल अपने पाठकों के सामने फैलाया। वे ईमानदारी के साथ वर्तमान काल की अपनी वर्तमान अवस्था का विश्लेषण करते रहे। उन्होंने देखा कि बंधन भीतर का है , बाहर का नहीं। एक बार अगर ये किसान , ये ग़रीब , यह अनुभव कर सकें कि संसार की कोई भी शक्ति उनको दबा नहीं सकती तो वे निश्चय ही अजेय हो जाएंगे। अपने मौजी पात्र ( मेहता ) से कहलवाते हैं , “ मैं भूत की चिंता नहीं करता , भविष्य की परवाह नहीं करता। भविष्य की चिंता हमें कायर बना देती है। भूत का भार हमारी कमर तोड़ देता है। हममें जीवनी शक्ति इतनी कम है कि भूत और भविष्य में फैला देने से वह क्षीण हो जाती है। हम व्यर्थ का भार अपने ऊपर लाद कर रूढ़ियों और विश्वासों तथा इतिहासों के मलबे के नीचे दबे पड़े हैं। उठने का नाम नहीं लेते। ”

सामाजिक सुधार

प्रेमचंद का साहित् ‍ य सामाजिक जागरूकता के प्रति प्रतिबद्ध है उनका साहित्य आम आदमी का साहित् ‍ य है। सामाजिक सुधार संबंधी भावना का प्रबल प्रवाह उन्हें कभी - कभी एक कल्पित यथार्थवाद की ओर खींच ले जाता है फिर भी कल्पना और वायवीयता से कथासाहित्य को निकालकर उसे समय और समाज के रू - ब - रू खड़ा करके वास्तविक जीवन के सरोकारों से जोड़ा। इनकी कहानियों में जहां एक ओर रूढियों , अंधविश् ‍ वासों , अंधपरंपराओं पर कड़ा प्रहार किया गया है वहीं दूसरी ओर मानवीय संवेदनाओं को भी उभारा गया है। अपने जीवन काल में वे विभिन्न सुधारवादी और पराधीनता की स्थितिजन्य नव जागरण प्रवृत्तियों से प्रभावित रहे हैं , यथा - आर्यसमाज , गाँधीवाद , वामपंथी विचारधारा आदि। लेकिन समाज की यथार्थगत भूमि पर उसकी सहज प्रवृत्ति में ये प्रवृत्तियाँ जितनी समा सकती है , उतनी ही मिलाते हैं , ठूस कर नहीं भरते। इसीलिए चित्रण में जितनी स्वाभाविकता प्रेमचन्द में देखने को मिलती है , अन्यत्र दुर्लभ है। ' गोदान ' में तो यह अपनी पराकष्ठा पर पहुँच गई है। यदि प्रेमचन्द युग का आरम्भ ' सेवासदन ' में है , तो उसका उत्कर्ष ' गोदान ' में। आदर्शों और विचारधाराओं को वे अपने पात्रों पर थोपते नहीं हैं , बल्कि अन्तर्मन या अन्तरात्मा की आवाज की तरह स्वाभाविक रूप से प्रस्फुटित होने देते हैं।

' सेवासदन ' और ' कायाकल्प ' में जहाँ साम्प्रदायिक समस्या उठाई गई है , वहीं ' सेवासदन ', ' रंगभूमि ', ' कर्मभूमि ' और ' गोदान ' में अन्तर्जातीय विवाह की। समाज में नारी की स्थिति और अपने अधिकारों के प्रति उनकी जागरूकता इनके लगभग सभी उपन्यासों में देखने को मिलती है। ' गबन ' और ' निर्मला ' में मध्यम वर्ग की कुण्ठाओं का बड़ा ही स्वाभाविक और सजीव चित्रण किया गया है। हरिजनों की स्थिति और उनकी समस्याओं को ' कर्मभूमि ' में सर्वोत्तम रूप से उजागर किया गया है।

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