हिंदी नाटकों के विकास पर प्रकाश डालिएहिंदी नाटकों के विकास पर प्रकाश डालते हुए उसका उत्तर दीजिए
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Explanation:
1 ) हिंदी नाटक विधा का आरंभ
हिंदी नाट्य साहित्य का आरंभ आधुनिक काल से होता है । हिंदी से पहले संस्कृत और प्राकृत में समृद्धि नाट्य- परंपरा थी लेकिन हिंदी नाटकों का विकास आधुनिक युग से ही संभव हो सका । मध्यकाल में रासलीला, रामलीला, नौटंकी ,आदि का उदय होने से जन नाटकों का प्रचलन बढ़ा यह नाटक मनोरंजन के प्रमुख साधन थे।
17वीं 18 वीं शताब्दी के लगभग कुछ ऐसे नाटक भी लिखे गए जो ब्रजभाषा में थे जैसे प्राणचंद चौहान का ‘ रामायण महानाटक ‘ व विश्वनाथ सिंह का ‘ आनंद रघुनंदन ‘ इसमें ‘ आनंद रघुनंदन ‘ को हिंदी साहित्य का प्रथम मौलिक नाटक माना जाता है । कथोपकथन ,अंक विभाजन , रंग संकेत आदि के कारण आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसे हिंदी का प्रथम मौलिक नाटक माना है।
इस दौर के सभी नाटक पर संस्कृत नाट्य साहित्य की छाप नजर आती है ।इसकी विषय वस्तु धार्मिक व पौराणिक है ।इसके संवाद पद्यात्मक है ।श्रृंगार इसकी मूल प्रवृत्ति है।
उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में पारसी थिएटर कंपनियां अस्तित्व में आ चुकी थी । इनका प्रमुख उद्देश्य विभिन्न नाटकों द्वारा जनता का मनोरंजन करना था । इनके नाटकों के कथानक कभी रामायण – महाभारत से कभी पारसी प्रेम कथाओं से , और कभी अंग्रेजी नाटक ‘ हैमलेट ‘ ,’ रोमियो जूलियट ‘ आदि से लिए जाते थे। इसमें बचकाने नृत्य, स्थान – स्थान पर गीत , शेरो- शायरी , ग़ज़ल आदि का समावेश रहता था । ऐसा ही नाटक अमानत द्वारा लिखी ‘ इंद्रसभा ‘ है। ‘ ओपेरा ‘ के समान इस नाटक का अधिकांश भाग गीतों से भरा है । बीच – बीच में संवाद है । ऐसे नाटकों द्वारा उत्पन्न कलाहीन , और असंस्कृति वातावरण से क्षुब्ध होकर भारतेंदु ने हिंदी नाटक को साहित्य कलात्मक रूप देने का प्रयास किया । उनके द्वारा स्थापित इस परंपरा को जयशंकर प्रसाद ने नया स्वरूप व नई दिशा प्रदान की। आगे चलकर मोहन राकेश जैसे नाटककारों ने इस परंपरा को आधुनिक यथार्थ से गहराई से जोडा।